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१६ अथर्ववेद सौहता भाग-९

हि देव 0 आप स्तुति करने पर देवों के लिए अन्न या आयुष्य प्रदाता देव हैं तथा चिक्र के लिए श्रेष्ठ मेधा-

सम्पन्न विप्र (विज्ञान) हैं। हे स्वधावान्‌ वरुणदेव ! देवों के बन्धु ओर हमारे पितारूप अधर्ववत्ताओं को आपने

उत्पन्न किया है । अत: आप हमें उत्तम ऐश्वर्य प्रदान करें । आप हमारे श्रेष्ठ बन्धु तथा मित्र है ॥११ ॥

[१२ - ऋतयज्ञ सूक्त ]

[ऋषि - अङ्गिरा । देवता - जातवेदा अग्नि | छन्द - त्रिष्टपू. ३ पंक्ति । |

१०२३. समिद्धो अच्च मनुषो दुरोणे देवो देवान्‌ यजसि जातवेदः ।

आ च वह पित्रमहश्चिकित्वान्‌ त्वं दूतः कविरसि प्रचेताः ॥९ ॥

प्राणिमात्र के हितैषी हे मित्र अग्ने ! आप महान्‌ गुण सम्पन्न होकर प्रज्वलित हों, कुशल याजको द्वारा निर्धारित

यज्ञ-मण्डप मे देवगणो को आहूत करें तथा यजन करें । आप श्रेष्ठ चेतनायुक्त विद्वान्‌ तथा देवगणो के दूत हैं ॥१ ॥

१०२४. तनूनपात्‌ पथ ऋतस्य यानान्‌ मध्वा समञ्जन्त्स्वदया सुजि ।

मन्मानि धीभिरुत यज्ञमृन्धन्‌ देवत्रा च कृणुहाध्वरं नः ॥२ ॥

शरीर के रक्षक और श्रेष्ठ वाणी वाले हे अग्निदेव ! आप सत्यरूप यज्ञ के मार्गों को वाक्‌ माधुर्य से सुसंगत

करते हुए हविर्यो को ग्रहण करें । विचारपूर्वक ज्ञान और यज्ञ देवगणो के लिए ग्रहण कर ठन तक पहुँचाएँ ॥२ ॥

१०२५. आजुह्वान ईड्यो वन्द्यश्चा याह्यग्ने वसुभिः सजोषाः ।

त्वं देवानामसि यद्व होता स एनान्‌ यक्षीषितो यजीयान्‌ ॥३ ॥

देवताओं को आहूत करने वाते हे अग्निदेव ! आप प्रार्थना करने योग्य वन्दनीय तथा वसुओं के समान प्रेम

करने वाले है । आप देवताओं के होतारूप में यहाँ पधार कर उनके लिए यज्ञ करें ॥३ ॥

१०२६. प्राचीनं बर्हिः प्रदिशा पृथिव्या वस्तोरस्या वृज्यते अग्रे अह्वाम्‌।

व्यु प्रथते वितरं वरीयो देवेभ्यो अदितये स्योनम्‌ ॥४ ॥

दिन के प्रारम्भकाल में भूमि या यज्ञभूमि को ढकने वाली ये कुशाएँ बहुत ही उत्तम है । ये देवताओं तथा

अदिति के निमित्त सुखपूर्वक आसीन होने के योग्य दै । यह यज्ञवेदी को ढकने के लिए फैलाई जाती हैं ॥४ ॥

१०२७. वयचस्वतीरुर्विया वि श्रयन्तां पतिभ्यो न जनयः शुम्भमानाः ।

देवीद्ारो बृहतीर्विश्वमिन्वा देवेभ्यो भवत सुप्रायणाः ॥५ ॥

जैसे पतिव्रता स्वियां अपने पति का विकास करने वासी होती है वैसे ही देवत्व सम्पन्न महती 'द्वार' देवियाँ

रिक्त स्थान वाली, सबको आने-जाने के लिए मार्ग देने वाली तथा देवगणो को सुगमता से प्राप्त होने वाली हों ॥५ ॥

१०२८. आ सुष्वयन्ती यजते उपाके उषासानक्ता सदतां नि योनौ ।

दिव्ये योषणे बृहती सुरुक्मे अधि श्रियं शुक्रपिशं दधाने ॥६ ॥

उषा ओर रात्रि देवियाँ मनुष्यो के लिए विभिन्न प्रकार के सुख प्रकट करें । वे यज्स्थल पर आकर प्रतिष्ठित

हों; क्योंकि वे यज्ञ भाग की अधिकारिणी (स्वामिनी) है । वे दोनों दिव्यलोकवासिनी, अतिगुणवती, श्रेष्ठ

आभूषणादि से शोभायुक्त, उज्ज्वल, तेजस्वीस्वरूप वाली तथा सौन्दर्य को धारण करने वाली है ॥६ ॥

१०२९. दैव्या होतारा प्रथमा सुवाचा मिमाना यज्ञं मनुषो यजध्यै ।

प्रचोदयन्ता विदथेषु कारू प्राचीनं ज्योतिः प्रदिशा दिशन्ता ॥७॥

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