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शिखा-मन्त्रसे ही मुख आदि अड्ञोंकी कल्पना
करे। मुखका उद्घाटन एवं प्रकटीकरण करे ।
तत्पश्चात् पूर्ववत् दसवें मासमे होनेवाले जातकर्म
एवं नरकर्मकी भावनासे तत्पुरुष-मन्त्रद्वारा दर्भ
आदिसे अग्निका पूजन एवं प्रज्वलनं करके
गर्भमलको दूर करनेवाला स्नान करावे तथा
ध्यानद्वारा देवीके हाथ सुवर्ण-बन्धन करके
हदय-मन््रसे पूजन करे । फिर सूतककी तत्काल
निवृत्तिके लिये अस्त्र-मन््द्रार अभिमन्त्रित जलसे
अभिषेक करे ॥ १४--१९॥
कुण्डका बाहरकौ ओरसे अस्त्र-मन्त्रके
उच्चारणपूर्वक कुशोंद्वारा ताडन या मार्जन करे।
फिर "हुम्" का उच्चारण करके उसे जलसे सींचे।
तत्पश्चात् कुण्डके बाहर मेखला्ओंपर अस्त्र-
मन्त्रसे उत्तर ओर दक्षिण दिशाओमें पूर्वाग्र तथा
पूर्व और पश्चिम दिशाओंमें उत्तराग्र कुशाओंको
बिछावे। उनपर हदय-मन््रसे परिधि-विष्टर (आठों
दिशाओंमें आसनविशेष) स्थापित करे। इसके
बाद सद्योजातादि पाँच मुख-सम्बन्धी मन्त्रोंसे
तथा अस्त्र-मन्त्रसे नालच्छेदनके उद्देश्यसे पाँच
समिधाओंके मूलभागको घीमें डुबोकर उन पाँचोंकी
आहुति दे। तदनन्तर ब्रह्मा, शंकर, विष्णु और
अनन्तका दुर्वा ओर अक्षत आदिसे पूजन करे।
पूजनके समय उनके नामके अन्तर्मे "नमः'
जोड़कर उच्चारण करे। यथा ब्रह्मणे नमः।'
"शंकराय नमः।' ' विष्णवे नमः।' “अनन्ताय
नमः।' फिर कुण्डके चारों ओर बिछे हुए पूर्वोक्त
आठ विष्टरॉपर पूर्वादि दिशाओंमें क्रमशः इन्द्र,
अग्नि, वम, निर्क्रति, वरुण, वायु, कुबेर और
ईशानका आवाहन और स्थापन करके यह भावना
करे कि उन सबका मुख अग्निदेवकी ओर है।
फिर उन सबकी अपनी-अपनी दिशामें पूजा
करे। पूजाके समय उनके नाम मन्त्रके अन्तर्मे
"नमः" जोड़कर बोले। वथा --' इन्द्राय नमः।'
इत्यादि ॥ २०--२३ ३ ॥
इसके बाद उन सब देवतारओंको भगवान्
शिवकी यह आज्ञा सुनावे --'देवताओ! तुम सब
लोग विध्नसमृहका निवारण करके इस बालक
(अग्नि)-का पालन करो।' तदनन्तर ऊर्ध्वमुख
सुक् ओर स्रुवको लेकर उन्हें बारी-बारीसे तीन
बार अग्ने तपावे। फिर कुशके मूल, मध्य और
अग्रभागसे उनका स्पर्श करावे। कुशसे स्पर्श
कराये हुए स्थानोपिं क्रमशः आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व
और शिवतत्त्व--इन तीनोका न्यास करे। न्यास-
वाक्य इस प्रकार रै ॐ हां आत्मतत्त्वाय
नमः।' ॐ हीं विद्यातत्वाय नमः।' "ॐ हूँ
शिवतत्त्वाय नम: ।'॥ २४--२६१॥
तत्पश्चात् खुकूमें “नम:' के साथ शक्तिका
और जुवं शिवका न्यास करे। यथा -' शक्त्यै
नमः।' "शिवाय नमः।' फिर तीन आवृत्तिमें फैले
हुए रक्षासूत्रसे सुक् ओर सुव दोनोके ग्रीवाभागको
आवेष्टित करे । इसके बाद पुष्पादिसे उनका पूजन
करके अपने दाहिने भागमें कुशोंके ऊपर उन्हें
रख दे। फिर गायका घी लेकर, उसे अच्छी तरह
देख-भालकर शुद्ध कर ले और अपने स्वरूपके
ब्रह्ममय होनेकी भावना करके, उस घीके पात्रको
हाथमें लेकर हृदय-मन्त्रसे कुण्डके ऊपर अग्निकोणमें
घुमाकर, पुनः अपने स्वरूपके विष्णुमय होनेकी
भावना करे। तत्पश्चात् घृतकों ईशानकोणमें
रखकर कुशाग्रभागसे घी निकाले और 'शिरसे
स्वाहा ।' एवं 'विष्णवे स्वाहा।' बोलकर भगवान्
विष्णुके लिये उस घृतबिन्दुकी आहुति दे। अपने
स्वरूपके रुद्रमय होनेकी भावना करके, कुण्डके
नाभिस्थानमें घृतकों रखकर उसका आप्लावन
करे॥ २७--३१ ३ ॥
(फैलाये हुए अँगूठेसे लेकर तर्जनीतककी