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* श्रीमद्धागवत *
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पतिव्रता पत्नोके नेत्रोमिं प्रेम और उत्कण्टाके आवेगसे
आँसू छलक आये । उसने अपने नेत्र बंद कर लिये ।
ब्राह्मणीने बड़े प्रेमभावसे उन्हें नमस्कार किया और
मन-ही-मन आलिड्रन भी ॥ २६॥
प्रिव परीक्षित् ! ब्राह्मणपत्नी सोनेका हार पहनी हुई
दासियकि बीचमें विमानस्थित देवाङ्खनाके समान अत्यन्त
शोभायमान एव देदीप्यमान हो रही धी । उसे इस रूपमें
देखकर वे विस्मित हो गये ॥ २७ ॥ उन्होंने अपनी पत्नीके
साथ बड़े प्रेमसे अपने महलमें प्रवेश किया। उनका
महल क्या धा, मानो देवराज इन्द्रका निवासस्थान। इसमें
मणियोंके सैकड़ों खंभे खड़े थे॥ २८ ॥ हाथीके दाँतके
बने हुए और सोनेके पातसे मैदे हुए पलंगोपर दूधके
फेनकी तरह शेत और कोमल बिछौने चछ रहे थे।
बहुत-से चैव वहाँ रक्खे हुए थे, जिनमें सोनेकी डंडियाँ
लगी हुई थीं॥ २९ ॥ सोनेके सिंहासन शोभायमान हो रहे
थे, जिनपर बड़ी कोमल-कोमल गद्दियाँ लगी हुई थीं।
ऐसे चैंदोबे भी झिलमिला रहे थे,जिनमें मोतियोंकी लड़ियाँ
लटक रही थीं॥ ३० ॥ स्फरिकमणिकी स्वच्छ भीतॉपर
पन्नेकी पच्चीकारी की हुई थी। रल्ननिर्मित स्त्रोमूर्तियोंके
हाथोंमें रत्नोके दीपक जगमगा रहे थे॥ ३१ ॥ इस प्रकार
समस्त सम्पत्तियोंकी समृद्धि देखकर और उसका कोई
प्रत्यक्ष कारेण न पाकर, बड़ी गम्भीरतासे ब्राह्मणदेवता
विचार करने लगे कि मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहाँसे आ
गयी ॥ ३२॥ वे मन-ही-मन कहने लगे--'मैं जन्मसे ही
भाग्यहीन और दरिद्र हूँ। फिर मेरी इस सम्पत्ति-
समृद्धिका कारण क्या है ? अवश्य ही परमैश्वर्यशाली
यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके कृपाकटाक्षके
अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हो सकता ॥ ३३ ॥ यह
सब कुछ उनकी करुणाकौ ही देन है। स्वयै भगवान्
श्रीकृष्ण पूर्णकाम और लक्ष्मीपति होनेके कारण अनन्त
भोगसामग्रियोंसे युक्त हैं। इसलिये वे याचक भक्तको
उसके मनका भाव जानकर बहुत कुछ दे देते हैं, परन्तु
उसे समझते हैं बहुत थोड़ा; इसलिये सामने कुछ कहते
नहीं मेंरे यदुर्वशशिरोमणि सखा श्यामसुन्दर सचमुच उस
मेघसे भी बढ़कर उदार हैं, जो समुद्रको भर देनेकी
शक्ति रखनेपर भी किसानके सामने न बरसकर उसके सो
जानेपर रातमें बरसता है और बहुत बरसनेपर भी थोड़ा ही
समझता है ॥ ३४ ॥ मेरे प्यारे सखा श्रीकृष्ण देते हैं बहुत,
पर उसे मानते हैं बहुत थोड़ा ! और उनका प्रेमी भक्त यदि
उनके लिये कुछ भी कर दे, तो वे उसको बहुत मान लेते
हैं। देखो तो सही ! मैंने उन्हे केवल एक मुदरी चिउड़ा भेंट
किया था, पर उदार-शिरोमणि श्रीकृष्णने उसे कितने प्रेमसे
स्वीकार किया ॥ ३५॥ मुझे जन्म-जन्म उन्हींका प्रेम,
उन्होंकी हितैषिता, उन्हीकी मित्रता और उन्हींकी सेवा प्राप्त
हो। मुझे सम्पत्तिकी आवश्यकता नहीं, सदा-सर्वदा उन्हीं
गुणोंके एकमात्र निवासस्थान महानुभाव भगवान्
श्रीकृष्णके चरणोंमें मेरा अनुराग बढ़ता जाय और उन््हींके
प्रेमी भक्तोंका सत्सङ्ग प्राप्त हो ॥ ३६॥ अजन्मा भगवान्
श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदिके दोष जानते हैं। वे देखते हैं कि
बड़े-बड़े धनियोंका धन और ऐश्वर्यके मदसे पतन हो जाता
है। इसलिये वे अपने अदूरदर्शी धक्तको उसके मांगते
रहनेपर भी तरह-तरहकी सम्पत्ति, राज्य और ऐश्वर्य आदि
नहीं देते। यह उनकी बड़ी कृपा है' ॥ ३७॥ परीक्षित् !
अपनी बुद्धिसे इस प्रकार निश्चय करके वे बऋह्मणदेवता
त्यागपूर्वक अनासक्तभावसे अपनी पत्नीके साथ
भगवत्मसादस्वरूप विषर्योको ग्रहण करने लगे और
दिनोंदिन उनकी प्रेम-भक्ति बढ़ने लगी ॥ ३८ ॥
प्रिय परीक्षित् ! देवताओंके भी आराध्यदेव भक्त-
भयहारी यज्ञपति सर्वशक्तिमान् भगवान् स्वयं ब्राह्मणोंको
अपना प्रभु, अपना इष्टदेव मानते हैं। इसलिये ब्राह्मणोंसे
बढ़कर और कोई भी प्राणी जगते नहीं है॥ ३९ ॥ इस
प्रकार भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे सखा उस ब्राह्मणने देखा
कि “यद्यपि भगवान् अजित हैं, किसीके अधीन नहीं हैं;
फिर भी वे अपने सेवकॉके अधीन हो जाते हैं, उनसे
पराजित हो जाते हैं;' अब वे उन्हींके ध्यानमे तन्मय हो
गये । ध्यानके आवेगसे उनकी अविद्याकी गाँठ कट गयी
और उन्होंने थोड़े ही समयमे भगवानका धाम, जो कि
संतोंका एकमात्र आश्रय है, प्राप्त किया॥४०॥
परीक्षित् ! ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान्
श्रीकृष्णकी इस ब्राह्मणभक्तिको जो सुनता है, उसे
भगवानके चरणों प्रेमभाव प्राप्त हो जाता है और वह
कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है॥४१॥