२७ अथववेद संहिता भाग-२
४४५९. यत् ते कृष्णः शकुन आतुतोद पिपीलः सर्प उत वा श्वापदः ।
अग्निष्टद् विश्वादगदं कृणोतु सोमश्च यो ब्राह्मणां आविवेश ॥५५ ॥
हे मृत मनुष्य ! आपके शरीर (जिस अंग-अवयव) को कौए, चरौ, सांप अथवा किसी दूसरे हिंसक पशु ने
व्यधित किया हो, तो सर्वभक्षक अग्निदेव उस अंग को पीड़ारहित करें । शरोर के अन्दर जो पोषण- रसरूप सोम
विद्यमान है, वह भी उसे कष्टमुक्त को ॥५५ ॥
४४६०. पयस्वतीरोषधयः पयस्वन्मामकं पयः ।
अपां पयसो यत् पयस्तेन मा सह शुम्भतु ॥५६ ॥
हमारे लिए ओषधियाँ सारयुक्त हों । हमारा सार ही सार सम्पन्न हो, जल इत्यादि रसो के साररूप सत्व अंश
से जलाभिमानी वरुणदेव हमें शुद्ध करें ॥५६ ॥
४४६१. इमा नारीरविधवाः सुपत्नीराञ्जनेन सर्पिषा सं स्पृशन्ताम् ।
अनश्रवो अनमीवाः सुरता आ रोहन्तु जनयो योनिमग्रे ॥५७ ॥
सधवा (सौभाग्यवती) और सुन्दर नारियाँ धृताज्जन से शोभायमान होकर अपने घरों में प्रविष्ट हों । ये नारियौ
आँसुओं को रोककर मानसिक विकारों का त्याग करती हुई, आभूषणो से सुसज्जित होकर आदरपूर्वक आगे-
आगे चलती हुई घरों में प्रविष्ट हो ॥५७ ॥
४४६२. सं गच्छस्व पितृभिः सं यमेनेष्टापूर्तेन परमे व्योमन्।
हित्वावद्यं पुनरस्तमेहि सं गच्छतां तन्वा सुवर्चाः ॥५८ ॥
हे पिता ! आप उत्तम लोक स्वर्ग में यज्ञ आदि दान - पुण्य कर्मों के फलस्वरूप अपने पितरगणों
के साथ संयुक्त हों । पाप कर्मों के प्रभाव से मुक्त होकर पुनः घर में प्रविष्ट हों तथा तेजस्वी देवरूप
को प्राप्त करें ॥५८ ॥
४४६३. ये नः पितुः पितरो ये पितामहा य आविविशुरु्व९न्तरिक्षम् ।
तेभ्यः स्वराडसुनीतिर्नो अद्य यथावशं तन्वः कल्ययाति ॥५९॥
पितामह, प्रपितामह तथा हमारे गोत्र में उत्पन्न हुए जिन पितरो ने विस्तृत अन्तरिश्चलोक में प्रवेश लिया है,
उनके निमित्त स्वयं प्रकाशमान प्राणस्वरूप परमेश्वर हमारी देहों को इच्छनुरूप विनिर्भित करते हैं ॥५९ ॥
२२६४. शं ते नीहारो भवतु शं ते प्रुष्वाव शीयताम् । शीतिके शीतिकावति ह्रादिके
ह्वादिकावति । मण्डुक्यश्प्सु शं भुव इमं स्वग्निं शमय ॥६० ॥
हे परतपुरुष ! दहन से उत्पन्न तुम्हारी जलन को यह कुहरा शान्त करे । धीरे- धीरे बरसते हुए
बादल तुम्हें सुख प्रदान करे । हे शीतिका ओषधि सम्पन्न और ह्वादिका ओषधियुक्त माता पृथि ! आप
इस दग्ध हुए प्रेतात्मा के लिए मण्डूकपर्णी ओषधि से सुख प्रदान करें, आप इस दाहक अग्नि को अच्छी
तरह शान्त कर दें ॥६० ॥
४४६५. विवस्वान् नो अभयं कृणोतु यः सुत्रामा जीरदानुः सुदानुः ।
इहेमे वीरा बहवो भवन्तु गोमदश्चवन्मय्यस्तु पुष्टम् ॥६९ ॥
सब प्रकार से संरक्षक , जीवनदाता सूर्यदेव हमे अभय प्रदान करें । इस संसार मे हमारी पुत्र-पौत्रादि सन्तति
की वृद्धि हो, हम गाय, अश्वादि पशुओं से परिपूर्ण रहें ॥६१ ॥