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मध्यमपर्ण, प्रथम भाग ]

* पाता, पिता एवं गुरुकी महिमा «

२०१

करनेवाला, व्यर्थमें तृणका छेदक, मिद्धीके ठेलेकों व्यर्थे

भेदन करनेवाला, मांस भक्षण करनेवात्य और अन्यक सीमे

आसक्त रहनेवाल्म व्यक्ति चपल कहत्पता है । २५. तैल,

उबटन आदि न छगानेवाछा, गन्ध और चन्दनसे शून्य,

नित्यकर्मकों न करनेवात्म य्यक्ति सल्लमीमस कहलाता दै ।

२६, अन्यायसे अन्यके घरका धन ले लेनेवात् तथा

अन्यायसे धन कपमानेवात्य, शाख-निषिद्ध धनोको ग्रहण

करनेवाला, देव-पुस्तक, रल, मणि-मुक्ता, अश्च, गौ, भूमि

तथा स्वर्णका हरण करनेवाला स्तेयी (चोर) कहा जाता दै ।

साथ हो देव-चिन्तन तथा परस्पर कल्याण-चिन्तर न

करनेवाले, गुरु तथा माता-पिताका पोषण न करनेवाले और

उनके प्रति पालनीय कर्तव्यका आचरण न करनेवाले एवं

उपकारी व्यक्तिक साथ समुचित व्यवहार न करनेवात्के--ये

सभी स्तेयी हैं। इन सभी दोषोंसे युक्त व्यक्ति रक्तपूर्ण नरकमें

निवास करते हैं। इनका सम्यक्‌ ज्ञान सम्पन्न हो जानेपर मनुष्य

देवत्वक प्राप्त कर छेता है। (अध्याय ५)

रस

माता, पिता एवं गुरूकी महिमा

श्रीसुतजी बोले--द्विजश्रेष|्ठ ! चारे कणेकि स्मि पिता

ही सबसे बड़ा अपना सहायक है । पिताके समान अन्य कोई

अपना बन्धु नहीं है, ऐसा वेदौका कथन है। माता-पिता और

गुर--ये तीनों पथपरदर्शक हैं, पर इनमें पाता ही सर्वोपरि है ।

भाद्योमिं जो क्रमदा: बड़े हैं, वे क्रम-क्रमसे ही विशोष आदरके

पात्र हैं। इन्हें ट्रादशी, अमावास्या तथा संक्रान्तिके दिन

यथारुचि मणियुक्त वस दक्षिणाके रूपमे देना चाहिये,

दक्षिणायन और उत्तरायणमें, विषुव संक्रान्तिमें तथा चनद्र-

सूर्य-प्रहणके समय यथाझक्ति इन्हें भोजन कराना चाहिये।

अनन्तर इन पन्त्रौसे" इनकौ चरण-वन्दना करनी चाहिये,

क्योंकि विधिपूर्वक वन्दन करनेसे ही सभी तीर्थोंका फल प्राप्त

हो जाता है। स्वर्ग और अपवर्ग-रूपी फल्ककों प्रदान करनेवाले

एक आद्य ब्रह्मस्वरूप पिताको मैं नमस्कार करता हूँ। जिनकी

प्रसन्नतासे संसार सुन्दर रूपमे दिखायी देता है, उन पिताका मैं

तिलयुक्त जलसे तर्पण करता हूँ। पिता ही जन्प देता है, पिता

ही पालन करता है, पितृगण ब्रह्मस्वरूप हैं, उन्हें नित्य पुनः पुनः

नमस्कार है। हे पितः ! आपके अनुप्रहसे लोकधर्म प्रवर्तित

होता है, आप साक्षात्‌ ब्रह्मरूप हैं, आपको नमस्कार है ।

जो अपने उदररूपी बिवरमें रखकर स्वयै उसकी सभी

प्रकारसे रक्षा करती है, रन षरा प्रकृतिस्वरूपा जनगीदेवीको

नमस्कार है । मातः ! आपने बड़े कष्टसे मुझे अपने उदर-

भदेश धारण किया, आपके अनुग्रहे मुझे यह संसार

देखनेको मिला, आपको बार-बार नमस्कार है । पृथिवीपर

जितने तीर्थं ओर सागर आदि है उन सबकी स्वरूपभूता

आपको अपनी कल्याण-प्रिके लिये मैं नमस्कार करता हूँ।

जिन गुल्देवके प्रसादसे मैंने यदास्करी विद्या प्राप्त की है, उन

भवसागरके सेतु-स्वरूप शिवरूप गुरुदेवको मेरा गमस्कयर है ।

अग्रजन्मन्‌ ! वेद और वेदाड्र-शास््रोके तत्व आपमें प्रतिष्ठित

हैं। आप सभी प्राणियोकि आधार हैं, आपको मेरा नमस्कार है।

ब्राह्मण सम्पूर्ण संसारके चलते-फिरते परम पायन तीर्थस्वरूप

हैं। अतः हे विष्णुरूपौ भूदेव ! आप मेरा पाप नष्ट करें,

आपको मेरा नमस्कार है।

१-स्वाईपवर्गप्रदमेकमा॑ आद्यस्थरूप॑ पितरे नमामि ! यलो जगत्‌ पश्यति चारुरूप त तर्पयासः सलिसेम्तिलैर्यूलै: ॥

पितरो

स्प्रेकस्तस्मादर्मः

कृत्वा

कच्छ महता देव्या

पृथिय्यों यानि तीर्थानि

गुरुदेवपरसदे ग्धा

जत्यन्तीह पिता; पालयन्ति च। पितरो अ्रह्मरूपा हि तेभ्यो नित्य नमो नमेः॥

प्रयर्तति । नमस्तुभ्य॑पितः स्लाक्षाद्‌बह्मरूप नमोऽस्तु ते ॥

ष्वय रक्षति सर्वतः । नमामि जननी दवौ परौ प्रकृतिरूपिणीम्‌॥

यधोंदेरे | स्वत्प्रसादाज्नगददु्ट म्बातर्नित्य॑ नमोपस्तु ते ॥

सर्वश्ाः। वसन्ति यत्र तौ जैमि छतर भूृतिहेतवे ॥

केऽ्सतु ते

सर्वधृकनासप्जन्मत्‌

यतः | भृदेव हर में पापे किष्णुरूपिन्‌ नमोऽस्तु ते#

(मध्यमपर्ण, १॥६॥ ६०-१४)

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