मरीचिको भी मोदक अर्पित करे। ब्रह्माजीसे नीचे
अग्रिकोणवर्ती कोष्ठमें स्थित सविता दैवताको
लाल फूल चढ़ावे। सवितासे नीचे बह्विकोणवर्ती
कोष्टमें सावित्री देवीको कुशोदक अर्पित करे।
ब्रह्माजीसे दक्षिण छ: पदोंके अधिष्ठाता विवस्वानृको
लाल चन्दन चढ़ाबे॥ १७--२०॥
ब्रह्माजीसे नैत्य दिशामें नीचेके कोष्ठमें इन्द्र-
देवताके लिये हल्दी-भात अर्पित करे। इन्द्रसे
नीचे नैऋत्यकोणमें इन्द्रजयके लिये मिष्टात्र
निवेदित करे। ब्रह्माजीसे पश्चिम छः पदोंमें
विराजमान मित्र देवताको गुडमिश्रित भात चढ़ावे।
बायव्यकोणसे नीचेके पदमें रुद्रदेवताको धृतपक्त
अन्न अर्पित करे। रुद्र देवतासे नीचेके कोष्ठमें, रुद्र
दासके लिये आर्द्रमांस (औषधविशेष) निवेदित
करे। तत्पश्चात् उत्तरवर्ती छः पदोंके अधिष्ठाता
पृथ्वीधरके निमित्त उड़दका बना नैवेद्य चढ़ावे।
ईशानकोणके निम्नवर्ती पदमें * आप'की और
उससे भी नोचेके पदमे आपवत्सकी विधिवत्
पूजा करके उन्हें क्रमशः दही और खीर अर्पित
करे ॥ २१--२४॥
तत्पश्चात् ( चौसठ पदवाले वास्तुमण्डलमें)
मध्यदेशवतीं चार पदोंमें स्थित ब्रह्माजीको पञ्चगव्य,
अक्षत और घृतसहित चरु निवेदित करे । तदनन्तर
ईशानसे लेकर वायव्यकोण-पर्यन्त चार कोणोंमें
स्थित चरकी आदि चार मातृकाओंका वास्तुके
बाह्मभागमें क्रमशः पूजन करे, जैसा कि क्रम
बताया जाता है। चरकौको सघृत मांस (फलका
गृदा), विदारौको दही ओर कमल तथा पूतनाको
पल, पित्त एवं रुधिर अर्पित करे । पापराक्षसीको
अस्थि (हड्डी), मांस, पित्त तथा रक्त चढ़ावे।
इसके पश्चात् पूर्व दिशामें स्कन्दको उड्द-भात
चढावे। दक्षिण दिशामें अर्यमाको खिचडी और
पूआ चढ़ावे तथा पश्चिम दिशामें जम्भक-
को रक्त-मांस अर्पित करे। उत्तर दिशामें
पिलिपिच्छको रक्तवर्णका अन्न और पुष्प निवेदित
करे। अथवा सम्पूर्ण वास्तुमण्डलका कुश, दही,
अक्षत तथा जलसे ही पूजन करे॥ २५--३०॥
घर और नगर आदियमें इक्यासी पदोंसे युक्त
वास्तुमण्डलका पूजन करना चाहिये। इस
वास्तुमण्डलमे त्रिपद ओर षट्पद रज्जुएँ पूर्ववत्
बनानी चाहिये। उसमें ईश आदि देवता “पदिक'
(एक-एक पदके अधिष्ठाता) माने गये हैं।
"आप" आदिकी स्थिति दो-दो कोष्टोंमें बतायी
गयी है। मरीचि आदि देवता छः पदोंमें अधिष्ठित
होते हैं और ब्रह्मा नौ पदोके अधिष्ठाता कहे गये
है । नगर, ग्राम और खेट आदिमे शतपद- वास्तुका
भी विधान है। उसमें दो वंश कोणगत होते है ।
वे सदा दुर्जय और दुर्धर कहे गये है ॥ ३१--३३॥
देवालयमें जैसा न्यास बताया गया है, वैसा
ही शतपद-वास्तुमण्डलमे भी विहित दै । उसमें
स्कन्द आदि ग्रह * षट्पद" (छः पदोंके अधिष्ठाता)
जानने चाहिये। चरकी आदि पाँच-पाँच पदोंकी
अधिष्टात्री कहौ गयी है । रजु ओर वंश आदिका
उल्लेख पूर्ववत् करना चाहिये । देश (या राष्ट्र )-की
स्थापनाके अवसरपर चौंतीस सौ पदोंका
वास्तुमण्डल होना चाहिये । उसमें मध्यवती ब्रह्मा
चौसठ पदोके अधिष्ठाता होते है । मरीचि आदि
देवताओंके अधिकारे चौवन-चौवनं पद होते
हैं। आप" आदि आठ देवताओंके स्थान छत्तीस-
छत्तीस पद बताये गये है । वहाँ ईशान आदि नौ-
नौ पदोकि अधिष्ठाता कहे गये हैं ओर स्कन्द
आदि सौ-सौ पदोंके। चरकी आदिके पद भी
तदनुसार ही हैं। रज्जु, वंश आदिकी कल्पना
पूर्ववत् जाननी चाहिये। बीस हजार पदोंके
बास्तुमण्डलमें भी वास्तुदेवकौ पूजा होती है--
यह जानना चाहिये। उसमें देश-वास्तुकी भाँति नौ