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काण्ड-६ सुक्त- १०७ । 4

[ १०६ - दर्वाशाला सूक्त ]

[ ऋषि - प्रमोचने । देवता - दूर्वाशाला | छन्द - अनुष्टप्‌ ।]

१६१५. आयने ते परायणे दुर्वा रोहतु पुष्पिणीः ।

उत्सो वा तत्र जायतां हृदो वा पुण्डरीकवान्‌ ॥१ ॥

हे अग्निदेव ! आप अभिमुख होकर अथवा प्राङ्गमुख होकर ममन करते हैं, तो हमारे देश में फूलसहित

दूर्वा उगती है । हमारे गृहादि स्थानों में सरोवर हो, जिनमे कमल खिले ॥१ ॥

१६१६. अपामिदं न्ययनं समुद्रस्य निवेशनम्‌ ।

मध्ये हृदस्य नो गृहाः पराचीना मुखा कृधि ॥२॥

हमारा घर जलपूर्ण रहे ।वह बड़ी जलराशियों के निकट हो । हे अग्ने आप अपनी ज्वालाओं को पीछे करें ॥२ ॥।

१६१७, हिमस्य त्वा जरायुणा शाले परि व्ययामसि ।

शीतहुदा हि नो भुवोऽग्निष्कृणोतु भेषजम्‌ ॥३ ॥

हे शाले । हम तुम्हें शीतल वातावरण से युक्त करते है । तुम हे शीतलता प्रदान करो । अग्निदेव हमारे

लिए शीत निवारण के निमित्त ओषधि स्वरूप बनें ॥३ ॥

[ १०७ - विश्वजित्‌ सूक्त |

[ऋषि - शन्ताति । देवता - विश्ववित्‌ | छन्द - अनुष्टप्‌ । ]

१६१८. विश्वजित्‌ त्रायमाणायै मा परि देहि ।

त्रायमाणे द्विपाच्च सर्वं नो रक्ष चतुष्पाद्‌ यच्च नः स्वम्‌ ॥१॥

हे विश्वजित्‌ देव ! आप जिस ्रायपाणा (रक्षक) शक्ति के सहयोग से जगत्‌ का पालन करते हैं, उनके आश्रय

में हमें रखें आप हमारे चौपायों (गौ ओं घोड़ो आदि) एवं दो- पैर वालो (पुत्र पौत्र, सेवक आदि) की रक्षा करें ॥१ ॥

१६१९, त्रायमाणे विश्वजिते मा परि देहि।

विश्वजिद्‌ द्विपाच्च स्वं नो रक्च चतुष्याद्‌ यच्च नः स्वम्‌ ॥२ ॥

हे त्रायमाण देव ! आप हमें विश्वजित्‌ देव को प्रदान करें । हे विश्वजित्‌ ! आप हमारे चौपायों एवं दो पैर

बालों कौ रक्षा करें ॥२ ॥

१६२०. विश्वजित्‌ कल्याण्यै मा परि देहि।

कल्याणि द्विपाच्च सर्वं नो रक्ष चतुष्ाद्‌ यच्च नः स्वम्‌॥३॥

हे विश्वजित्‌ देव ! आप हमें कल्याणी शक्ति के अधीन करें । हे कल्याणि ! आप हमारे दो पैर वालों एवं

चार चैर वालों की रक्षा करें ॥३ ॥

१६२१. कल्याणि सर्वविदे मा परि देहि।

सर्वविद्‌ दविपाच्च सर्वं नो रक्ष चतुष्पाद्‌ यच्च नः स्वम्‌ ॥४॥

है कल्याणी देवि ! आप हमें समस्त कार्यों के ज्ञाता सर्वविद्‌ देव को प्रदान करें । हे सर्वविद्‌ देव ! आप

हमारे दो पैर वालों एवं चार पैर वालों की रक्षा करें ॥४ ॥

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