* अध्याय १९१४ *+
शरीर चञ्चल हो उठा। यह देख प्रभु ब्रह्माजीने पुनः
भगवान् विष्णुसे कहा - देव ! गयासुर पूर्णाहुतिके
समय विचलित हो रहा है।' तब श्रीविष्णुने
धर्मको बुलाकर कहा - तुम इस असुरके शरीरपर
देवमयी शिला रख दो और सम्पूर्ण देवता उस
शिलापर जैठ जायं । देवताओकि साथ मेरी गदाधरमूर्ति
भी इसपर विराजमान होगी ।' यह सुनकर धर्मने
देवमयी विशाल शिला उस दैत्यके शरीरपर रख
दी ।.(शिलाका परिचय इस प्रकार है--) धर्मसे
उनकी पत्नी धर्मवतीके गर्भसे एक कन्या उत्पन्न
हुई थी, जिसका नाम * धर्मरता" था। वह बड़ी
तपस्विनौ धी । ब्रह्माके पुत्र महर्षि मरीचिने उसके
साथ विवाह किया। जैसे भगवान् विष्णु
श्रीलक्ष्मीजीके साथ और भगवान् शिव श्रौपार्वतीजीके
साथ विहार करते हैं, उसी प्रकार महर्षिं मरीचि
धर्मत्रताके साथ रमण करने लगे॥ ७--११॥
एक दिनकी बात है। महर्षि जंगलसे कुशा
और पुष्प आदि ले आकर बहुत थक गये थे।
उन्होंने भोजन करके धर्मन्रतासे कहा--'प्रिये!
मेरे पैर दबाओ।' “बहुत अच्छा' कहकर प्रिया
धर्मव्रता थके- मोदे मुनिके चरण दबाने लगी।
मुनि सो गये; इतनेमें ही वहाँ ब्रह्माजी आ गये ।
धर्मब्रताने सोचा --' मैं ब्रह्माजीका पूजन करूँ या
अभी मुनिकी चरण-सेवामें ही लगी रहूँ। ब्रह्माजी
गुरुके भी गुरु है - मेरे पतिके भी पूज्य हैं; अतः
इनका पूजन करना ही उचित है ।' ऐसा विचारकर
वह पूजन-सामग्रियोंसे ब्रह्माजीकी पूजामें लग
गयी। नींद टूटनेपर जब मरीचि मुनिने धर्मव्रताको
अप्रने समीप नहीं देखा, तब आज्ञा-उल्लब्लनके
अपराधसे उसे शाप देते हुए कहा--'तू शिला हो
जायगी।' यह सुनकर धर्मव्रता कुपित हो उनसे
बोली --' मुने! चरण-सेवा छोड़कर मैंने आपके
पूज्य पिताकी पूजा की है, अत: मैं सर्वथा निर्दोष
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भनन् व ४,
हूँ; ऐसी दशाम भी आपने मुझे शाप दिया है,
अत्तः आपको भी भगवान् शिवसे शापकी प्राप्ति
होगी ।' यों कहकर धर्मव्रताने शापको पृथक् रख
दिया और स्वयं अग्ने प्रवेश करके वह हजारों
वर्षोतक कठोर तपस्या्मे संलग्न रही । इससे
प्रसन्न होकर श्रीविष्णु आदि देवताओनकहा -
“वर मगो ।' धर्मव्रता देवताओंसि बोली -' आपलोग
मेरे शापको दूर कर दे" ॥ १२-१८॥
देवताओंने कहा - शुभे! महर्षिं मरीचिका
दिया हुआ शाप अन्यथा नहीं होगा। तुम देवताओकि
चरण-चिहसे अद्भत परमपवित्र शिला होओगी।
गयासुरके शरीरको स्थिर रखनेके लिये तुम्हें
शिलाका स्वरूप धारण करना होगा। उस समय
तुम देवत्रता, देवशिला, सर्वदेवस्वरूपा, सर्वतीर्थमयी
तथा पुण्यशिला कहलाओगी ॥ १९-२०॥
देवव्रता बोली - देवताओं ! यदि आपलोग
मुझपर प्रसन्न हों तो शिला होनेके बाद मेरे ऊपर
ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र॒ आदि देवता और गौरी-
लक्ष्मी आदि देवियाँ सदा विराजमान रहे ॥ २१॥
अग्निदेव कहते हैं-- देवव्रताकी बात सुनकर
सब देवता “ तथास्तु" कहकर स्वर्गको चले गये।
उस देवमयी शिलाको ही धर्मने गयासुरके शरीरपर
रखा। परंतु वह शिलाके साथ ही हिलने लगा।
यह देख रुद्र आदि देवता भी उस शिलापर जा
बैठे। अब वह देवताओंको साथ लिये हिलने-
डोलने लगा। तब देवताओंने क्षीरसागरशायी
भगवान् विष्णुको प्रसन्न किया। श्रीहरिने उनको
अपनी गदाधरमूर्ति प्रदाव की और कहा-
"देवगण ! आपलोग चलिये; इस देवगम्य मूर्तिके
द्वारा मैं स्वयं ही वहाँ उपस्थित होऊँगा।” इस
प्रकार उस दैत्यके शरीरको स्थिर रखनेके लिये
व्यक्ताव्यक्त उभयस्वरूप साक्षात् गदाधारी भगवान्
विष्णु वहाँ स्थित हुए । वे आदि-गदाधरके नामसे