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१८ अकवर संहिता भाग-१

१४०४. परि णो वृङ्ग्धि शपथ हृदमग्निरिवा दहन्‌ ।

शप्तारमन्न नो जहि दिवो वृक्षमिवाशनिः ॥२ ॥

हे शपथ ! तू वाधक मत बन, हमको छोड़ दे और जो शत्रु हमें शाप दे रहे है, उन्हें उसी तरह भस्म कर दे,

जिस प्रकार तड़ित्‌ वृक्ष को भस्म कर देती है ॥२ ॥

१४०५. यो न: शपादशपतः शपतो यश्च न: शपात्‌ ।

शुने पेट्टमिवावक्षामं ते प्रत्यस्यामि मृत्यवे ॥३ ॥

हम शाप नहीं देते हैं; लेकिन यदि कोई हमें शाप दे, कठोर भाषा बोले, तो ऐसे शत्रु को हम बैसे ही मृत्यु के

समक्ष फेंकते हैं, जैसे कुत्ते के आगे भक्षण हेतु रोटी डालते हैं ॥३ ॥

[ ३८ - वर्चस्य सूक्त ]

[ऋषि ~ अथर्वा । देवता - बृहस्पति अथवा त्विषि । छन्द - त्रिष्टप्‌। ]

१४०६, सिंहे व्याघ्र उत या पृदाकौ त्विषिरग्नौ ब्राह्मणे सूर्ये या।

इन्द्रं या देवी सुभगा जजान सा न एतु वर्चसा संविदाना ॥१ ॥

मृगोददर मे, व्याघ्र मे तथा सर्प मे ओ तेजस्‌ है; अग्निदेव में ब्राह्मण और सूर्यदेव में जो तेजस्‌ है तथा जिस

तेजस्‌ से इन्द्रदेव प्रकट हुए हैं; वही वर्धमान इच्छित तेजस्‌ हमको भौ पराप्त हो ॥१ ॥

१४०७, या हस्तिनि द्वीपिनि या हिरण्ये त्विषिरप्पु गोषु या पुरुषेषु ।

इन्द्र या देवी सुभया जजान सा न एतु वर्चसा संविदाना ॥२ ॥

जो तेजस्‌ हाथी और बाघ में है तथा जो स्वर्ण में, जल मे, गौ ओं और मनुष्यो में रहता है, जिसने इन्द्रदेव को

उत्पन्न किया है, वह दिव्य तेजस्‌ हमारे इच्छित रूप में हमें प्राप्त हो ॥२ ॥

१४०८. रथे अक्षेष्वृषभस्य वाजे वाते पर्जन्ये वरुणस्य शुष्ये ।

इन्द्रं या देवी सुभगा जजान सा न एतु वर्चसा संविदाना ॥३ ॥

आवागमन के साधन रथ के अक्षो पे, सेचन- शक्तियुक्त वृषभ में, तौव्रगामी वायु में, वर्षाकारक पेष पे और

उसके अधिपति वरुण में जो तेजस्‌ है, जिसने इद्धदेव को उत्पन्न किया है ।वह 'त्विषि' दिव्य तेजस्‌ हमे प्राप्त हो ॥

१४०९. राजन्ये दुन्दुभावायतायामश्चस्य वाजे पुरुषस्य मायौ ।

इन्द्रं या देवी सुभगा जजान सा न एेतु वर्चसा संविदाना ॥४ ॥

राज्याभिषेक के समय बजने वाली दुन्दुभि में, घोड़ो के तीव गमन में, पुरुष के उच्चस्वर में, जो "त्विषि"

{ तेजस्‌) है एवं जिसने इन्द्र को उत्पन्न किया है, वह त्विषि (तेजस्‌) दिव्यता के साथ हमें प्राप्त हो ॥४ ॥

[३९ - वर्चस्य सूक्त ]

[ऋषि - अधर्वा । देवता - वृहस्पति अधवा त्विषि । छन्द - जगती, २ त्रिष्टुप्‌, ३ अनुष्टप्‌ । ]

१४१०. यशो हविर्वर्धतामिन््रजूतं सहस्रवीर्यं सुभृतं सहस्कृतम्‌. ।

प्रसर्न्‍्नाणमनु दीर्घाय चक्षसे हविष्मन्तं मा वर्धय ज्येष्ठतातये ॥९ ॥

अपरमित शक्ति वाली, पराभवकारक, बल देने में समर्थ, प्रसारित होने वाली यशोदायिनी हवि कदरे । रे

इन्द्रदेव ! इस बढ़ने वाली हवि से प्रसन्न होकर, आप-हम हविदाता यजमानो की श्रेष्ठ प्रगति करें ॥१ ॥

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