Home
← पिछला
अगला →

काण्ड-५ सुक्त- २८. ५

हरित (स्वर्णं या हरियाली ) के द्वारा भूमि आपकी सुरक्षा करे । विश्च - पोषक तथा प्रेपपू्णं अग्निदेव अयम्‌

(लोहे या कर्म शक्ति ) मे आपका पालन करें और ओषधियुक्त अर्जुन (शेत, रजस्‌- चन्द्रमा) आपके मन में शुभ

संकल्पमय सामर््य स्थापित करें ॥५ ॥

१२३८. त्रेथा जातं जन्मनेदं हिरण्यमग्नेरेकं प्रियतमं बभूव सोमस्यैकं हिंसितस्य

परापतत्‌ ।अपामेकं वेधसां रेत आहुस्तत्‌ ते हिरण्यं त्रिवृदस्त्वायुषे ॥६ ॥

यह हिरण्य (स्वर्ण अथवा हिरण्वगर्भ- मूल उत्पादक तेज) जन्म से ही तोन तरह से पैदा हुआ । इसका पहला

जन्म अग्निदेव को परम प्रिय हुआ, दूसरा कूटे गये सोम से बाहर निकला और तीसरे को सारभूत जल का

बोर्यरूप कहते हैं । ( हे धारणकर्ता ) यह हिरण्यमय त्रिवृत्‌ आपके लिए आयुष्य देने वाला हो ॥६ ॥

१२३९. ज्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम्‌ ।

त्रेधामृतस्य चक्षणं त्रीण्याय्‌ंषि तेऽकरम्‌ ॥७ ॥

जमदग्नि (ऋषि अथवा प्रज्वलित अग्नि) के तीन आयुष्य, कश्यप (ऋषि अथवा तत्त्वदर्शी के तीन आयुष्य

तथा अपृत तत्त्व को तीन प्रकार से धारण करने वाले दर्शन , इन तीनों के द्वारा तुम्हारे आयुष्य को (संस्कारित या

पुष्ट ) करते हैं ॥७ ॥

[ जमदग्नि के तीन आयुष्य (मंत्र ० ९ में वर्णित ) अय्‌ के, कश्यप (देखने वाले ) के तीन आयुष्य रजत तथा अमृत

तत्व दर्शन के तीन आयुष्य हरित (सत्त् या हिरण्य) के कहे जा सकते है । |

१२४०. त्रयः सुपर्णाखिवृता यदायन्नेकीक्षरमधिसंभुय शक्रः ।

प्रत्यौहन्मृत्युममृतेन साकमन्तर्दधाना दुरितानि विश्वा ॥८ ॥

जब एक अक्षर (3$ या अविनाशी ) के साथ तीन सुपर्ण (श्रेष्ठ किरणों से युक्त) त्रिवृत्‌ बनाकर समर्थं बनते

हैं, तब वे अमृत से युक्त होकर समस्त विकारों का निवारण करते हुए मृत्यु को दूर हटा देते हैं ॥८ ॥

[ ॐ के साथ ॐ उ, म्‌, यह तीन शब्द एक होकर अथवा अनश्वर जीवात्मा के साथ भाव विचार तथा कर् प्रवाह एक

होकर शक्तिशाली बनते हैं, तो वे उक्त प्रभाव दिखाते हैं। ]

१२४९१. दिवस्त्वा पातु हरितं मध्यात्‌ त्वा पात्वर्जुनम्‌।

भूम्या अयस्मयं पातु प्रागाद्‌ देवपुरा अयम्‌ ॥९ ॥

हरित (हिरण्य या सत्‌) आपकी द्युलोक से सुरक्षा करें, सफेद ( चाँदी या-रजस्‌ ) मध्यलोक से सुरक्षा करें

तथा अयस्‌ (लोहा या कर्मशक्ति) भूलोक से सुरक्षा करें । यह (ज्ञान) देवों की पुरियो में प्राप्त हुआ है ॥९ ॥

१२४२. इमास्तिस्रो देवपुरास्तास्त्या रक्षन्तु सर्वतः ।

तास्त्वं बिभ्रद्‌ वर्चस्थ्युत्तरो द्विषतां भव ॥१० ॥

ये देवों की तीन पुरियाँ चारो तरफ से आपकी सुरक्षा करें उनको धारण करके, आपके तेजस्वी होते हुए

रिपुओं की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ हों ॥१० ॥

१२४३. पुरं देवानाममृतं हिरण्यं य आबेधे प्रथमो देवो अग्रे।

तस्मै नमो दश प्राचीः कृणोम्यनु मन्यतां त्रिवृदाबधे मे ॥१४ ॥

देवताओं की स्वर्णिम नगरी अमृत स्वरूप है । जिस प्रमुख देव ने सबसे पहले इनको त्रितो को ) बाधा

(घारण किया) था, उनको हम अपनी दस अँगुलियाँ जोड़कर नमस्कार करते है । वे देवगण इस त्रिवृत्‌ को बाँधने

में हमें भी अनुमति प्रदान करें ॥११ ॥

← पिछला
अगला →