ब्राह्मपर्व ]
+ पातक, उपपातक, यप्रमार्य एवं यमयातनाकां वर्णन +
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छाया, उद्यान तथा देवायतनमें मल-मृत्रका परित्याग
करनेवाला, काम, क्रोध तथा मदसे आविष्ट पराये दोषोंके
अन््वेषणमें तत्पर, पाखण्डियोंका अनुगामी, मार्ग रोकनेवास्प,
दूसरेकी सोमका अपहरण करनेवाला, नीच, कर्म करनेवास्म्
भूत्योकि प्रति अतिकाय निर्दयी, पशुओका दमन करनेवात्म,
दुसरफेकी गुप्त बातोंको कान लगाकर सुननेवात्प्र, गौको मारने
अथवा उसे बार-बार त्रास देनेवाला, दुर्बलकौ सहायता न
करनेवात्प्र, अतिज्ञय भारसे प्राणीको कष्ट देनेवात्म और
असमर्थ पश्ुकों जोतनेवात्त--ये सभी पातकी कहें गये हैं
तथा नरकगामी होते है ¦ जो परोक्षमें किसी प्रकार भी सरसोकि
बराबर किसीक्य धन चुराता है, वह निश्चित ही नरकमें जाता
है। ऐसे पापियोंको मृत्युके उपरान्त यमस्प्रेकमें यातना-
चारीरकी प्राप्ति होती है। यमकी आज्ञासे यमदूत उसे यमत्ओरेकमें
ले जाते हैं और वहां उसे बहुत दुःख देते हैं । अधर्म करनेवाले
आणियोंके शास्ता धर्मराज कहे गये हैं। इस लोकमें जो
पर-स्त्रोगामी हैं, चोरी करते हैं, क्रिसोके साथ अन्यायपूर्ण
व्यवहार करते हैं तो इस लोकका राजा उन्हें दण्ड देता है । परेतु
छिपकर पाप करनेवात्करैको धर्मज दण्ड देते हैं। अतः किये
गये पापोंका प्रायश्चित्त करना चाहिये। अनेक प्रकारके झाख्र-
कथित प्रायश्चित्तोंके द्वारा पातक नष्ट हो जाते हैं। शरीरसे,
पनसे और वाणीसे किये गये पाप बिना भोगे अन्य किसी
प्रकारसे कोटि कल्पोमें भी नष्ट नहीं होते। जो व्यक्ति स्वयं
अच्छ कर्म करता है, कराता है या उसका अनुमोदन करता है,
यह उत्तम सुख प्राप्त करता है।
सप्ताश्चतिलक भगवान् सूर्यने पुनः कहा--हे
खगश्रेष्ठ ! पाप करनेवालॉक्यर अपने पाफ्के निमित्ते घोर संत्रास
भोगना पड़ता है । गर्भस्य, जायमान, बालक, तरुण, मध्यम,
बुद्ध, समी, पुरुष, नपसक सभी शरीरधारियोंको यमलोकमे
अपने किये गये शुभ और अशुध फल्मैको भोगना पड़ता है ।
वहाँ सत्यवादी चित्रगुप्त आदि धर्मयजको जो भी शुभ और
अशुभ कर्म अतत््रते है, उन कर्मक फल उस प्राणीको
अवदय ही भोगना पड़ता है। जो सौप्य हदय, दया-समन्वित
एवं शुभकर्म करनेवाले हैं, वे सौम्य पथसे और जो मनुष्य क्रूर
कर्म करनेवाले एवं पापाचरण संलप हैं, थे घोर
देक्षिण-मार्गसे कष्ट सहन करते हुए यमपुरीमें जाते हैं।
वैवस्वतपुरी छियासी हजार अस्सो योजनम है। शुभ कर्म
करनेवाले व्यक्तर्योकरो यह धर्मपुरी समीप हो प्रतीत होती है
और रौद्रमार्गसे जानेवाले पापियॉंको अतिदाय दूर। यमपुरीका
मार्ग अत्यन्त भयंकर है, कहीं कटे बिछे हैं और कहीं
बालृ-हो-बालू है, कहीं तलवारकी धारके समान है, कहीं
नुकीले पर्वत हैं, कहों असह्य कड़ी धूप है, कहीं खाइयाँ और
कहीं स्मेहेकी कले हैं। कहीं वृक्षों तथा पर्वतोंसे गिराया जाता
हुआ वह पापी व्यक्ति प्रेतोंसे युक्त मार्गमे दुख्ित हो यात्रा
करता है। कहीं ऊबड़लाबड़, कहाँ कैंकरीले और कहीं तप्त
बालुकामय मार्गोंसे चलना पड़ता है। कहीं ` अ्काराच्छन्न
भयंकर कष्टमय मार्गसे बिना किसी आश्रयके जाना पड़ता है ।
कहीं सींगसे परिव्याप्त मार्गसे, कहीं दावाग्रिसे परिपूर्ण मार्गसे,
कहीं तप्त पर्वतसे, करी हिमाच्छादित मार्गसे और कहाँ
अप्रिमय मार्गसे गुजरना पड़ता है। उस मार्गमें कलो सिंह,
जॉक, कहीं अजगर, कहीं भयंकर मक्षिकाएँ, कहीं विषः वमन
करनेवाले सर्प, कहीं विशाल बलोनन््मत्त प्रमादौ गजसमृह, कहीं
भयंकर विच्छ, कहों बड़े-बड़े थृंगोंवाले महिष, रौद्र
डाकिनियाँ, कराल राक्षस तथा महान् भयंकर व्याधियाँ उसे
पीड़ित करती हैं, उन्हें भोगता हुआ पापी व्यक्ति यममार्गे
जातां है। उसपर कभी पाषाणको वृष्टि होती है, कभी बिजली
गिरतो है तथा कभी वायुके झंझावातोंमें वह उलझाया जाता है
और कहीं अंगारोंकी वृष्टि होती है। ऐसे भयंकर सागसि
पापाचरण करनेवाले भूख-प्याससे व्याकुल मूढ पापीको
यमदूत यमल्ग्रेककी ओर ले जाते हैं।
अतः पाप छोड़कर पुण्य-कर्मका आचरण करना
चाहिये । पुण्यसे देवत्व प्राप्त होता है और पापसे नरककी प्राप्ति
होती है। जो थोड़े समयके लिये भी मनसे भगवान् सूर्यकी
पूजा करता है, वह कभी भी यमपुरी नहीं जाता। जो इस
पृथिवीपर सभी प्रकारसे भगवान् भास्करकी पूजा करते हैं, वे
पापसे वैसे ही लिप्त नहीं होते, जैसे कमलपत्र जलसे लिप्त नहीं
होता । इसलिये सभी प्रकारसे भुजन-भास्करकी भक्तिपूर्वक
आराधना करनी चाहिये।
(अध्याय १९०--१९२)
जय बज