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* अग्निपुराण *

*शौच' दो प्रकारका बताया गया है --' बाह्य

और * आभ्यन्तर '। मिट्टी और जलसे ' बाह्मशुद्धि

होती है ओर भावक शुद्धिको ' आभ्यन्तर शुद्धि!

कहते है । दोनों ही प्रकारसे जो शुद्ध है, वही शुद्ध

है, दूसरा नहीं । प्रारब्धके अनुसार जैसे-तैसे जो

कुछ भी प्राप्त हो जाय, उसीमें हर्ष मानना

"संतोष" कहलाता है। मन और इन्द्रियोंकी

एकाग्रताको “तप' कहते हैं। मन और इन्द्रियोंपर

विजय पाना सब धर्मोसे श्रेष्ठ धर्म कहलाता है।

"तप" तीन प्रकारका होता है - वाचिक, मानसिक

ओर शारीरिक। मन्त्रजप आदि “वाचिक,

आसक्तिका त्याग ' मानसिक" ओर देवपूजन आदि

+शारीरिक" तप है । यह तीनों प्रकारका तप सब

कुछ देनेवाला है । वेद प्रणवसे हौ आरम्भ होते

हैं, अतः प्रणवे सम्पूर्ण वेदोँकी स्थिति है।

वाणीका जितना भी विषय है, सब प्रणव है;

इसलिये प्रणवका अभ्यास करना चाहिये (यह

स्वाध्यायके अन्तर्गत है) । प्रणब” अर्थात्‌ ' ओंकारे

अकार, उकार तथा अर्धमात्राविशिष्ट मकार है।

तीन मात्राएँ तीनों वेद्‌, भू: आदि तीन लोक, तीन

गुण, जाग्रत्‌, स्वपन और सुषुप्ति--ये तीन अवस्थाएँ

तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव--ये तीनों देवता

प्रणवरूप हैं। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र, स्कन्द्‌, देवी

और महेश्वर तथा प्रद्युम्न, श्री ओर वासुदेव -ये

सब क्रमशः ॐकारके ही स्वरूप है । ॐकार

मात्रासे रहित अथवा अनन्त मात्राओंसे युक्त है।

वह द्वैतकी निवृत्ति करनेवाला तथा शिवस्वरूप

है । ऐसे ॐकारको जिसने जान लिया, वही मुनि

है, दूसरा नहीं । प्रणवकी चतुर्थीमात्रा (जो अर्धमात्रके

नामसे प्रसिद्ध है) ' गान्धारी" कहलाती है। वह

प्रयुक्त होनेपर मूद्धमिं लषित होती है। वही

"तुरीय" नामसे प्रसिद्ध परब्रह्म है । वह ज्योतिर्मय

प्रकाश करता है, वैसे ही मूद्धमिं स्थित परब्रह्म

भी भीतर अपनी ज्ञानमयी ज्योति छिटकाये रहता

है। मनुष्यको चाहिये कि मनसे हृदयकमलमें

स्थित आत्मा या ब्रह्मका ध्यान करे और जिह्वासे

सदा प्रणवका जप करता रहे । (यही ' ईश्वरप्रणिधान '

है।) ' प्रणव" धनुष है, " जीवात्मा" बाण है तथा

“ब्रह्म” उसका लक्ष्य कहा जाता है । सावधान

होकर उस लक्ष्यका भेदन करना चाहिये और

बाणके समान उसमें तन्मय हो जाना चाहिये । यह

एकाक्षर (प्रणव) ही ब्रह्म है, यह एकाक्षर ही

परम तत्त्व है, इस एकाक्षर ब्रह्मको जानकर जो

जिस वस्तुकी इच्छा करता है, उसको उसीकी

प्राप्ति हो जाती है । इस प्रणवका देवौ गायत्री छन्द

है, अन्तर्यामी ऋषि हैं, परमात्मा देवता हैं तथा

भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये इसका विनियोग

किया जाता है। इसके अद्ग-न्यासकी विधि इस

प्रकार है -' ॐ भूः अग्न्यात्मने हृदयाय नम: ।--

इस मन्त्रसे हदयका स्पर्श करे। "ॐ भुवः

प्राजापत्यात्मने शिरसे स्वाहा।' ऐसा कहकर

मस्तकका स्पर्श करे । ' ॐ स्वः सर्वात्मने शिखायै

वषट्‌ ।'- इस मन्त्रसे शिखाका स्पर्श करे। अब

कवच बताया जाता है -' ॐ भूर्भुवः स्वः सत्यात्मने

कवचाय हम्‌।' इस मन्त्रसे दाहिने हाथकौ

अँगुलिरयोद्वारा बायीं भुजाके मूलभागका और बायें

हाथकी अँगुलियोंसे दाहिनी हके मूलभागका

एक ही साथ स्पर्श करे। तत्पश्चात्‌ पुनः * ॐ

भूर्भुवः स्वः सत्यात्मने अस्त्राय फट्‌।' कहकर

चुटकी बजाये। इस प्रकार अङ्गन्यास करके भोग

और मोक्षको सिद्धिके लिये भगवान्‌ विष्णुका

पूजन, उनके नामोंका जप तथा उनके उद्देश्यसे

तिल और घी आदिका हवन करे; इससे मनुष्यकी

समस्त कामनाएँ पूर्ण होती हैं। (यही ईश्वरपूजन

है। जैसे घड़ेके भीतर रखा हुआ दीपक वहाँ | है; इसका निष्कामभावसे ही अनुष्ठान करना उत्तम

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