है।) जो मनुष्य प्रतिदिन बारह हजार प्रणवका
जप करता है, उसको बारह महीनेमें परब्रह्मका
ज्ञान हो जाता है। एक करोड़ जप करनेसे
अणिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, एक
लाखके जपसे सरस्वती आदिकी कृपा होती
है। विष्णुका यजन तीन प्रकारका होता है--
वैदिक, तान्त्रिक और मिश्र। तीनोंमेंसे जो अभीष्ट
हो, उसी एक विधिका आश्रय लेकर श्रीहरिकी
पूजा करनी चाहिये। जो मनुष्य दण्डकी
भाँति पृथ्वीपर पड़कर भगवान्को साष्टाङ्ग
प्रणाम करता है, उसे जिस उत्तम गतिकी प्राप्ति
होती है, वह सैकड़ों यज्ञोंके द्वारा दुर्लभ है।
जिसकी आराध्यदेवमें पराभक्ति है और जैसी
देवतामें है, वैसी ही गुरुके प्रति भी है, उसी
महात्माको इन कहे हुए विषयोंका यथार्थ ज्ञान
होता है॥ १७--३६॥
इस गकार आदि आर्तव महापुराणमें “यम्र-नियम-तिरूएण” नामक
तीन सौ बहत्तरवां अध्याय पूरा हुआ# २७२१
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तीन सौ तिहत्तरवाँ अध्याय
आसन, प्राणायाम और प्रत्याहारका वर्णन
अग्निदेव कहते हैं-- मुने! पद्मासन आदि नाना
प्रकारके “ आसन ' बताये गये ह । उनमेंसे कोई भी
आसन बाँधकर परमात्माका चिन्तन करना चाहिये ।
पहले किसी पवित्र स्थानमें अपने बैटनेके लिये
स्थिर आसन बिछावे, जो न अधिक ऊँचा हो और
न अधिक नीचा। सबसे नीचे कुशका आसन हो,
उसके ऊपर मृगचर्प ओर मृगचर्मके ऊपर वस्त्र
बिछाया गया हो । उस आसनपर बैठकर मन और
इन्द्रियोंकी चेष्टाओंकों रोकते हुए चित्तको एकाग्र
करे तथा अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये योगाभ्यासे
संलग्न हो जाय। उस समय शरीर, मस्तक और
गलेको अविचलभावसे एक सीधे रखते हुए
स्थिर बैठे। केवल अपनी नासिकाके अग्रभागको
देखे; अन्य दिशाओंकी ओर दृष्टिपात न करे।
दोनों पैरोंकी एड़ियोंसे अण्डकोष और लिङ्गकी
रक्षा करते हुए दोनों ऊरुओं (जाँघों)-के ऊपर
भुजाओंको यत्नपूर्वक तिरछी करके रखे तथा
जायें हाथकी हथेलीपर दाहिने हाथके पृष्ठभागको
स्थापित करे और मुँहको कुछ ऊँचा करके
सामनेकी ओर स्थिर रखे। इस प्रकार बैठकर
प्राणायाम करना चाहिये॥ १--५१ ॥
अपने शरीरके भीतर रहनेवाली वायुको
"प्राण" कहते है । उसे रोकनेका नाम है- आयाम '।
अतः "प्राणायाम 'का अर्थं हुआ--' प्राणवायुको
रोकना'। उसकी विधि इस प्रकार है--अपनी
अँगुलीसे नासिकाके एक छिद्रको दबाकर दूसरे
छिद्रसे उदरस्थित वायुको बाहर निकाले । "रेचन"
अर्थात् बाहर निकालनेके कारण इस क्रियाको
“रेचक” कहते हैं। तत्पश्चात् चमडेकी धोकनीके
समान शरीरको बाहरी वायुसे भरे। भर जानेपर
कुछ कालतक स्थिरभावसे बैठा रहे। बाहरसे
वायुकी पूर्तिं करनेके कारण इस क्रियाका नाम
"पुरक" है । वायु भर जानेके पश्चात् जब साधक
न तो भीतरी वायुको छोडता है ओर न बाहरी
यायुको ग्रहण ही करता है, अपितु भरे हुए घड़ेकी
भोति अविचल-भावसे स्थिर रहता है, उस समय
कुम्भवत् स्थिर होनेके कारण उसकी वह चेष्टा
" कुम्भक" कहलाती है। बारह मात्रा (पल) -का
एक "उद्धात" होता है। इतनी देरतक वायुको
रोकना कनिष्ठ श्रेणीका प्राणायाम है। दो उद्धात