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तीन सौ बहत्तरवाँ अध्याय
यम और नियमोंकी व्याख्या; प्रणवकी महिमा तथा भगवत्पूजनका माहात्म्य
अग्निदेव कहते हैं-मुने! अब मैं
* अष्टाङ्गयोग का वर्णन करूँगा, जो जगत्के त्रिविध
तापसे छुटकारा दिलानेका साधन है। ब्रह्मको
प्रकाशित करनेवाला ज्ञान भी 'योग'से ही सुलभ
होता है। एकचित्त होना-चित्तकों एक जगह
स्थापित करना “योग' है । चित्तवृत्तियोंके निरोधको
भी 'योग' कहते हँ । जीवात्मा एवं परमात्मामें ही
अन्तःकरणकी वृत्तियोंकों स्थापित करना उत्तम
'योग' है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्यं ओर
अपरिग्रह -ये पाँच 'यम' हैं। ब्रह्मन्! 'नियम'
भी पाँच ही हैं, जो भोग और मोक्ष प्रदान
करनेवाले हैं। उनके नाम ये हैं--शौच, संतोष,
तप, स्वाध्याय और ईश्वराराधन (ईश्वरप्रणिधान) ।
किसी भी प्राणीको कष्ट न पहुँचाना 'अहिंसा' है।
“अहिंसा' सबसे उत्तम धर्म है। जैसे राह चलनेवाले
अन्य सभी प्राणियोंके पदचिह्न हाथीके चरणचिहमें
समा जाते हैं, उसी प्रकार धर्मकि सभी साधन
"अहिंसा" पँ गतार्थं माने जाते हैं। 'हिंसा'के दस
भेद हैं-किसीको उद्देगमें डालना, संताप देना,
रोगी बनाना, शरीरसे रक्त निकालना, चुगली
खाना, किसीके हितमें अत्यन्त बाधा पहुँचाना,
उसके छिपे हुए रहस्यका उद्घाटन करना, दूसरेको
सुखसे वञ्चित करना, अकारण कैद करना और
प्राणदण्ड देना। जो बात दूसरे प्राणियोंके लिये
अत्यन्त हितकर है, वह “सत्य' है। 'सत्य'का
यही लक्षण है-सत्य बोले, किंतु प्रिय बोले;
अप्रिय सत्य कभी न बोले। इसी प्रकार प्रिय
असत्य भी मुँहसे न निकाले; यह सनातन धर्म है।
"ब्रह्मचर्य ' कहते हैं -' मैथुनके त्यागको '। ' मैथुन '
आठ प्रकारका होता है--स्त्रीका स्मरण, उसकी
चर्चा, उसके साथ क्रीड़ा करना, उसकी ओर
देखना, उससे लुक-छिपकर बातें करना, उसे
पानेका संकल्प, उसके लिये उद्योग तथा क्रियानिर्वृत्ति
(स्त्रीसे साक्षात् समागम) -ये मैथुनके आठ अङ्गं
हैं-ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है । ' ब्रह्मचर्य"
ही सम्पूर्ण शुभ कर्मोकी सिद्धिका मूल है; उसके
बिना सारी क्रिया निष्फल हो जाती है। वसिष्ठ,
चन्द्रमा, शुक्र, देवताओकि आचार्य वृहस्पति तथा
पितामह ब्रह्माजी - ये तपोवृद्ध और वयोवृद्ध होते
हुए भी स्त्रियोकि मोहमें फंस गये। गौडी, पैष्टी
और माध्वी-ये तीन प्रकारकी सुरा जाननी
चाहिये । इनके बाद चौथी सुरा “स्त्री " है, जिसने
सारे जगत्को मोहित कर रखा है । मदिराको तो
पीनेपर हौ मनुष्य मतवाला होता है, परंतु युवती
स्त्रीको देखते ही उन्मत्त हो उठता है। नारी
देखनेमात्रसे ही मनमें उन्माद करती है, इसलिये
उसके ऊपर दृष्टि न डाले। मन, वाणी और
शरीरद्वारा चोरीसे सर्वथा बचे रहना * अस्तेय"
कहलाता है। यदि मनुष्य बलपूर्वक दूसरेकी
किसी भी वस्तुका अपहरण करता है, तो उसे
अवश्य तिर्यग्योनिमें जन्म लेना पड़ता है। यही
दशा उसकी भी होती है, जो हवन किये बिना
ही (जलिवैश्वदेवके द्वारा देवता आदिका भाग
अर्पण किये बिना ही) हविष्य (भोज्यपदार्थ)-
का भोजन कर लेता है। कौपीन, अपने शरीरको
ढकनेवाला वस्त्र, शीतका कष्ट-निवारण करनेवाली
कन्था (गुदड़ी) और खड़ाऊँ-इतनी ही वस्तुं
साथ रखे। इनके सिवा और किसी वस्तुका संग्रह
न करे--(यही अपरिग्रह है)। शरीरकी रक्षाके
साधनभूत वस्त्र आदिका संग्रह किया जा सकता
है। धर्मके अनुष्ठानमें लगे हुए शरीरकी यल्नपूर्वक
रक्षा करनी चाहिये ॥ १-१६ ॥