जड़
“फेन' शब्दसे 'इलच्' प्रत्यय होनेपर 'फेनिलम्'*
रूप होता है, इसका अर्थ है--फेनयुक्त जल।
लोमादिगणसे “श' प्रत्यय होता है, (विकल्पसे
“मतुप् भी होता है )--इस नियमके अनुसार 'श'
प्रत्यय होनेपर 'लोमशः ^ प्रयोग बनता है। (“मतुप्'
होनेपर “'लोमवान्' होता है। इसी तरह “रोमशः,
रोमवान्'-ये प्रयोग सिद्ध होते हैं।) पामादि
शब्दोंसे “न' होता है--इस नियमके अनुसार
“पाम' शब्दसे “न' होनेपर 'पामनः' "अङ्कात्
कल्याणे।'--इस वार्तिकके अनुसार * कल्याण'
अर्थमें 'अज्भ' शब्दसे “न! होनेपर “लक्ष्मण:'
(उत्तम लक्षणोंसे युक्त) ये रूप बनते हैं। वैकल्पिक
"मतुप्" होनेपर तो “पामवान्' आदि रूप होंगे।
जिसे खुजली हुई हो, वह "पामन ' या “पामवान्'
है। इसी तरह पिच्छादि शब्दोंसे 'इलच्' होता
है-इस नियमके अनुसार “इलच्' होनेपर
"पिच्छिलः ', 'पिच्छवान्'; 'उरसिलः ', 'उरस्वान्'
इत्यादि रूप होते हैं। “पिच्छिल:' का अर्थ
'पंखवान्' होता है। मार्गका विशेषण होनेपर यह
फिसलनयुक्तका बोधक होता है--यथा 'पिच्छिल:
पन्था:।' 'उरस्वान्' का अर्थ “मनस्वी' समझना
चाहिये। ['प्रज्ञाश्रद्धार्चाभ्यो णग:।' (५। २।
१०१)--इस पाणिनि-सूत्रके अनुसार] “ण' प्रत्यय
करनेपर "प्राण शब्दसे "प्राज्ञः (प्रज्ञावान्),
"श्रद्धा" शब्दसे ' श्राद्धः" (श्रद्धावान्) और " अर्चा"
शब्दसे “आर्च:' (अर्चावान्) रूप बनते है ।
वाक्यम प्रयोग--प्राज्ञो व्याकरणे ।' स्त्रीलिङ्गे
"प्राज्ञा' (प्रजावती) रूप होगा। “ण' प्रत्यय
होनेसे अणन्तत्वप्रयुक्त "ङीप्" प्रत्यय यहाँ नहीं
होगा। यद्यपि ' प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञ: स एव
प्रज्ञावान् ।' प्रज्ञ एव प्राञ्चः । ( स्वार्थे अण प्रत्ययः ) --
इस प्रकार भी "प्राज्ञः" की सिद्धि तो होती है,
तथापि इससे स्त्रीलिङ्गमें 'प्ाज्ञी' रूप बनेगा,
'प्राज्ञा' नहीं । वृत्ति शब्दसे भी “ण' प्रत्यय
होता है--'वार्त:' ( वृत्तिमान्) । "वार्ता" विद्या इत्यादि ।
ऊँचे दाँत हैं इसके-इस अर्थे "दन्त" शब्दसे "उरच्"
प्रत्यय होनेपर "दन्तुर '- यह रूप होता है। "दन्त उन्नत
उरचू।' (५। २। १०६)-इस पाणिनि-सूत्रसे उक्त
अर्थमे "दन्तुरः ' इस पदकी सिद्धि होती है। 'मधु'
शब्दसे "र' प्रत्यय होनेपर "मधुरम्, ' सुषि
शब्दसे “र' प्रत्यय होनेपर "सुषिरम्" “केश'
शब्दसे “व” प्रत्यय होनेपर “केशव: '* ' हिरण्य '
क तोये गेवे मे ग
वाचक है । यद्यपि लोक " वत्स "का अर्धं बदा और " अंस "कर अर्थ कंधा समझा जाता है, तथापि तद्धित वृत्ते ' वत्स ' ओर ' अस ' शब्द
क्रषशः ' खेह ' तथा ' बल ' के अर्थये हौ लिये गये हैं ( तत्वबोधिनी ) । इन अर्थॉमें ' मतुप्' प्रत्ययका समुच्चय नहीं होता; क्योकि " मतुप्"
प्रत्यय करनेपर उक्त अर्थोकी प्रतीति न होकर अर्थान्तरकौ ही प्रतीति होती है । यथा " वत्सवतौ गौः ।' * अंसवान् दुर्बलः ।' इत्यादि ।
१, पाणिनिके अनुरढर ' फेनादिलच् च ' (५। २। ९९) -इस सूते “इलच् प्रत्यय होता है । यहाँ चकाससे ' लच् 'प्रत्ययका भी विकल्पते
विधान सूचित होता दै । प्राणिस्थादातो लजन्यतरस्पाम्।' (५। २। ९६) --इस सूत्रसे ' अन्यतस्स्याम्' पदकौ अनुषृत्ति होती है, जिससे यहाँ
"मतुप् का भी समुन्वय होता है। इस प्रकार 'फेन' शब्दसे तीन रूप होते हैं--'फेनिल: ', फेनलः” तथा 'फेनवान्' सागरः ।
२. 'लोमश:" "पामन" और “पिच्छिल:' आदि पदोँके साधतके लिये पाणिनिने एक हौ सूत्रका उल्लेख किया है--
*लोमादिपामादिपिच्छादिभ्य: शनेलय:।' (५॥ २। १००)
३. "ऊषसुषिमुष्कमधो रः" (पा० सू० ५। २। १०७)-इस सूत्रसे 'र' प्रत्यय होनेपर ' ऊष" आदि शकब्दोंसे 'ऊषर: ', 'सुषिरम'
*मुष्कर:', 'मधुरम्'-ये प्रयोग सिद्ध होते हैं। ये क्रमश: ऊसर भूमि, छिद्र, अण्डकोशवान् तथा माधुर्ययुक्तके बोधक हैं।
४. 'केशाद्रो5न्यतरस्याम ।” (५। २। १०९)--इस सूत्रसे "केश" शब्दसे ' च' प्रत्यय होनेपर ' केशव: ' रूप बनता है। अन्यतरस्याम्"
कौ अनुयृत्ति प्रकरणत: प्रा होनेसे 'मतुप्' सिद्ध था; पुनः उक्त सूत्रमें जो उसका ग्रहण किया गया, इससे "इन्" और "ठन्" का भी
समावेश होता है, अत: केशवान्, केशी और केशिक:--ये तीन रूप और बतते हैं। ये सभी प्रयोग मत्वर्थीयप्रत्ययान्त हैं, तथापि व्यवहारमें
अन्तर है। केशवः ' का अर्थ है-घुँघराले केशवाले भगवान् श्रीकृष्ण। अन्य किसोके लिये इस शब्दका प्रयोग हीं देखा जाता। "केशी"
और “केशिक' ठस दैत्यका वाचक है, जो अश्यरूपधारी था और उसकी गर्दनपर बड़े-बड़े बाल (अयाल) थें। "केशवान्" षद
झआामात्था: सभी केशधारियकरि लिये प्रयुक होता है।