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तथा “मणि! शब्दोंसे 'व' प्रत्यय होनेपर

“हिरण्यवमणि व:"१' --ये प्रयोग सिद्ध होते हैं।

“रजस्‌' शब्दसे ' वलच्‌ ' प्रत्यय होनेपर 'रजस्वलम्‌*'

पदकौ सिद्धि होती है। १--३।

*धन', 'कर' तथा 'हस्त'-इन शब्दोंसे

*इनि' प्रत्यय होनेपर क्रमश: “धनी ', "करी" और

“हस्ती'--ये पद सिद्ध होते हैं। 'धन' शब्दसे

"ठन्‌" प्रत्यय होनेपर ' धनिकं कुलम्‌' या ' धनिकः

पुरुष: '--ये प्रयोग सिद्ध होते हैं। 'पयस्‌' तथा

"माया ' शब्दोंसे 'विनि' प्रत्यय होनेपर * पयस्वी ',

“मायावी'-ये रूप बनते हैं। "ऊर्णा" शब्दसे

मत्वर्थीय " युस्‌ ' प्रत्यय होनेपर "ऊर्णायुः ' पदकी

सिद्धि बतायी गयी है।' " वाच्‌" शब्दसे “ग्मिनि'

प्रत्यय होनेपर “वाग्मी ' तथा " आलच्‌, प्रत्यय होनेपर

वाचालः" ये रूप बनते है। उसीसे * आटच्‌”

प्रत्यय होनेपर "वाचाटः" रूप बनता है । 'फल'

तथा “बह ' शब्दों से “इनच्‌ ' प्रत्यय होनेपर क्रमशः

"फलिनः ', ' वर्हिणः '- ये रूप बनते है । " वृन्द"

शब्दसे ' आरकन्‌ ' प्रत्यय होनेपर " वृन्दारकः '-

इस पदकी सिद्धि होती है ॥ ४-५॥

शीतं न सहते", ' हिमं न सहते'-इस विग्रहमें

“शीत ' तथा ' हिम ' शब्दोंसे आलुच्‌ प्रत्यय करनेपर

“शीतालुः ' तथा "हिमालुः ' रूप बनते हैं। ' वात '

शब्दसे "उलच्‌" प्रत्यय होनेपर * वातुलः' रूप

बनता है । ' अपत्य ' अर्थमें ' अण्‌ ' प्रत्यय होता है ।

"वसिष्ठस्यापत्यं पुमान्‌ वासिष्ठः ।', ' कुरोरपत्यं पुमान्‌

कौरवः।' (वसिष्ठकी संतान "वासिष्ठ" कहलाती

है तथा कुरुकी संतति ' कौरव ') -' वहौँ उसका

निवास है '--इस अर्थमें सप्तम्यन्त ' समर्थं ' शब्दसे

"अण्‌" प्रत्यय होता है । यथा " पथुरायां वासोऽस्येति

माथुरः ।' (मथुरामे निवास है इसका, इसलिये

यह " माथुर ' है ।) ' सोऽस्य वासः ।'- वह इसका

वासस्थान है, इस अर्थमे भी प्रथमान्त ' समर्थसे'

"अण्‌ ' प्रत्यय होता है । "उसको जानता ओर उसे

पढ़ता है इस अर्थे द्वितीयान्त " समर्थ ' पदसे

"अण्‌" प्रत्यय होता है । " चान्द्रं व्याकरणमधीते

तद्‌ वेद वा इति चान्द्रः ।' ( चान्द्र एव चान्द्रकः

स्वार्थे कप्रत्ययः ) ।' क्रमादि ' शब्दोंसे * वुन्‌ ' प्रत्यय

होता है (*वु'के स्थानम "अक" आदेश होता

है ।) ' क्रमं वेत्ति इति क्रमकः '- जो क्रमपाठको

जानता है, वह ' क्रमक ' दै । इसी तरह ' पदकः ',

“शिक्षकः ', * मीमांसकः ' इत्यादि पद बनते ह ।

"कोशम्‌ अधीते वेद वा ।'-- जो कोशको जानता या

पढ़ता है, वह 'कौशक' है ॥ ६--८॥

१-२. ' हिरष्ववः ' का अर्ध ' हिरष्वान्‌ ' ( सुवर्ण - सम्पत्ति युक्त) तथा " मणिवः * शब्द " मणिधारी ' ( मनियारा) सर्पं या जके

लिये प्रयुक्त होता है।

३, "रजः कृष्यासुतिपरिषदों वलच्‌' (५। २। ११२)-इस सूत्रसे * वलच्‌" प्रत्यय होनेपर क्रमशः “रजस्थल', 'कृषीवल

'आसुतीवल' तथा 'परिषद्वल' शब्द सिद्ध होते हैं। इनके अर्थ क्रमशः इस प्रकार हैं--धूलसे भरा, किसान, जुआरी तथा परिषत्‌-

सभा या समूहसे युक्त।

४, “अत इविठती' (५। २। ११५)-इस सूत्रसे "इति ' प्रत्यय होनेपर 'घनी' तथा “ठन्‌' प्रत्यय होनेपर * धनिकः" रूप अनरे

हैं। इसी प्रकार करी, करिकः, हस्ती, हस्तिक:--ये रूप बनते हैं। 'धनी' का अर्थ है--घनवान्‌ तथा 'करी' ओर “हस्तौ' का अर्थ

है--हाथी। ' पवस्वी" का अर्थ है-दूधवाला तथा " मायावी ' का अर्थ है-माया फैलानेयाला। “यिनि' प्रत्यवका विधायक सूत्र

है -" अस्मायामेधास्रजो चितिः ।' (५।२। १२१) | 'ऊर्णाया युस्‌।' (५।२। १२३)--इस सूत्रसे ' युस्‌' प्रत्ययका विधान हुआ। * ऊर्णायु:"

माने ऊती।

७, ' चाचोग्मिविः ।' (५१ २। १२४)--इस सूत्से 'स्मिनि' प्रत्यय होता है। ' आलजाटचौ बहुभाषिणि।' ' कुत्सित इति यक्तव्यम्‌'--

इन वॉस्किंद्रारा " आलच्‌' और 'आटच्‌' प्रत्यव होते हैं। अच्छो ब्रातकों बहुत बोलनेखाला 'खाग्मी' कहलाता है और कुत्सित चातको

अधिक घोलनेवाला 'वाचाल' और “बाचाट' कहलाता है। 'फलबरहभ्यामिनचू।' इस बार्तिकसे 'इनचू' और ' शृज्ग॒वृन्दाध्याम्‌ आसकन्‌।'

इस वार्तिकसे " आरकन्‌' प्रत्यय होनेपर फलिनः” ( फलवान्‌), ' अर्हिणः ' ( मोर) तथा 'वृन्दारक:' (देवता)--ये प्रयोग सिद्ध होते हैं।

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