करे। ' पाश बन्ध बन्धाकर्षयाकर्षय हुँ फट् '-- इस
मन्त्रसे पाशका' पूजन करे । "अङ्कुशः कट्ट हुं
फट्'- इससे अङ्कुशकी पूजा करे।
भगवानूकौ भुजाओंमें स्थित अस्त्रोंका तत्तत्-
अस्त्र-सम्बन्धी इन्हीं मन्त्रोंसे क्रमशः: पूजन
करे॥ २४--२७॥
` ॐ पक्षिराजाय हुँ फट्'-- इस मन्त्रसे पक्षिराज
गरुडकी पूजा करे। कर्णिकामें पहले अङ्ग
देवताओंका विधिवत् पूजन करे। फिर पूर्व आदि
दलोंमें लक्ष्मी आदि शक्तियों तथा चामरधारी तार््व्य
आदिकी अर्चना करे। शक्तियोंकी पूजाका प्रयोग
अन्तमें करना चाहिये। पहले देवेश्वर इन्द्र आदि
दण्डीसहित पूजनीय हैं। लक्ष्मी और सरस्वती
पीतवर्णकी हैं। रति, प्रीति और जया--ये शक्तियाँ
श्वैतवर्णा हैं। कीर्ति तथा कान्ति श्रेतवर्णा हैं। तुष्टि
तथा पुष्टि--ये दोनों श्यामवर्णा हैं। इनमें स्मरभाव
(प्रेममिलनकी उत्कण्ठा) उदित रहती है। लोकेश
(ब्रह्माजी तथा दिक्पाल) - पर्यन्त देवताओंकी पूजा
करके अभीष्ट अर्थकी सिद्धिके लिये भगवान्
विष्णुकी पूजा करनी चाहिये । निम्नाङ्कित मन्त्रका
ध्यान और जप करे। उसके द्वारा होम और
अभिषेक करे। (मन्त्र यों है--) "ॐ श्रीं क्लीं हीं
हूं त्रैलोक्यमोहनाय विष्णवे नम: ।'--इस मन्त्रा
पर्ववत् पूजन आदि करनेसे साधक सम्पूर्ण कामनाओंको
प्राप्त कर लेता है। जल तथा सम्मोहनी वृक्षके
पुष्पद्वारा उक्त मन्त्रसे नित्य तर्पण करे। ब्रह्मा, इन्द्र,
श्रीदेवी, दण्डी, बीजमन्त्र तथा त्रैलोक्यमोहन विष्णुका
पूजन करके उक्त मन्त्रका तौन लाख जप करनेके
पश्चात् कमलपुष्प, बिल्वपत्र तथा घीसे एक लाख
होम करे। उक्त हवन-सामग्रीमें चावल, फल,
सुगन्धित चन्दन आदि द्रव्य ओर दुर्वा भी मिला
ले। इन सबके हारा हवनकर्म सम्पादित करके
मनुष्य दीर्घं आयुकी उपलब्धि करता है। उस
जप, अभिषेक तथा होमादि क्रियासे संतुष्ट होकर
भगवान् विष्णु उपासकको अभीष्ट फल प्रदान
करते है ॥ २८--३६॥
" ॐ नमो भगवते वराहाय भूर्भुवःस्वः पतये
भूपतित्वं मे देहि दापय स्वाहा ।'-- यह वराह
भगवानूका मन्त्र है। इसका पञ्चाङ्गन्यास
इस प्रकार है--' ॐ नमो हदयाय नमः । भगवते
शिरसे स्वाहा। वराहाय शिखायै वषट् ।
भूर्भुवःस्वःपतये कवचाय हुम्। भूपतित्वं मे देहि
दापय स्वाहा अस्त्राय फट्।' इस प्रकार पञ्चाङ्ग
न्यासपूर्वक वराह-मन्त्रका प्रतिदिन दस हजार
बार जप करनेसे मनुष्य दीर्घ आयु तथा राज्य
प्राप्त कर सकता है ॥ ३७-३८ ॥
ङ्ख प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'क्रलोक्यमोहनमन्नका वणन ' नामक
तीन सौ सात्वं अध्याय पूरा हओ ॥२०७॥
(~^
तीन सौ आठवाँ अध्याय
त्रैलोक्यमोहिनी लक्ष्मी एवं भगवती दुगकि मन््रोका कथन
अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ठ! वान्त (श्), | जो ^ श्री" देवीका मन्त्र है ओर सब सिद्धियोंको
वद्वि (र), वामनेत्र (ईकार) और दण्ड | देनेवाला है।
(अनुस्वार) --इनके योगसे ' श्रीं ' बीज बनता है,
(इसका अङ्गन्यास इस प्रकार करना चाहिये -
१. पाशका सर्वस्रम्पत मन्रूप " शारदातिलक "मे इस प्रकार वर्णित हुआ है --' महापाश यन्ध चन्ध आकर्षयाकर्षय हुँ फट् स्वाहा,
पाशाय कमः।
२. अङ्कूरा-मनत्र भी अपने पूर्णरूप इस प्रकार उपलब्ध होता है--' महकल कट कट हुँ कट् स्थाहा, अकुव नमः ।'