चनन नच्च;
१
दो सौ इकतालीसवाँ अध्याय
मन््रविकल्प
श्रीराम कहते हैं--- ' लक्ष्मण! प्रभावशक्ति ओर
उत्साह-शक्तिसे मन्त्रशक्ति श्रेष्ठ बतायी गयी है।
प्रभाव और उत्साहसे सम्पन्न शुक्राचार्यको देवपुरोहित
बृहस्पतिने मन्त्र-बलसे जीत लिया॥ १॥
जो विश्वसनीय होनेके साथ-ही-साथ
नीतिशास्त्रका विद्वान् हो, उसीके साथ राजा अपने
कर्तव्यके विषयमे मन्त्रणा करे। (जो विश्वसनीय
होनेपर भी मूर्ख हो तथा विद्धान् होनेपर भी
अविश्वसनीय हो, ऐसे मन्तरीको त्याग दे। कौन
कार्य किया जा सकता है ओर कौन अशक्य है,
इसका स्वच्छ बुद्धिसे विवेचन करे ।) जो अशक्य
कार्यका आरम्भ करते हैं, उन्हें क्लेश उठानेके सिवा
कोई फल कैसे प्राप्त हो सकता है ?॥ २-३॥
अविज्ञात (परोक्ष)-का ज्ञान, विज्ञातका निश्चय,
कर्तव्यके विषयमे दुविधा उत्पन्न होनेपर संशयका
उच्छेद (समाधान) तथा शेष (अन्तिम निश्चित
कर्तव्य)-की उपलब्धि--ये सब मन्त्रियोंक ही अधीन
हैं। सहायक, कार्यसाधनके उपाय, देश और कालका
विभाग, विपत्तिका निवारण तथा कर्तव्यकी सिद्धि-
ये मन्त्रियोंकी मन्त्रणाके पाँच अङ्ग हैं॥४॥
मनकी प्रसनता, श्रद्धा (कार्यसिद्धिके विषयमें
दृद विश्वास), ज्ञानेद्धियों तथा कर्मन्धियोकी स्वविषयक
व्यापारे क्षमता, सहाय-सम्पत्ति (सहायकोंका बाहुल्य
अथवा सत्त्वादि गुर्णोका योग) तथा उत्थान- सम्पत्ति
(शीघ्रतापूर्वक उत्थान करनेका स्वभाव)-ये
मन्त्रद्वारा निश्चित करके आरम्भ किये जानेवाले
कर्मोंकी सिद्धिके लक्षण हैं॥५॥
मद (मदिर आदिका नशा), प्रमाद ( कार्यान्तरके
प्रसङ्गसे असावधानी ), काम (कामभावनासे प्रेरित
होकर स्विर्योपर विश्वास), स्वप्नावस्थामें किये
गये प्रलाप, खंभे आदिकी ओटमें लुके-छिपे लोग,
पार्श्ववर्तिनी काभिनियाँ तथा उपेक्षित प्राणी (तोता,
मैना, बालक, बहरे आदि) -ये मन्त्रका भेदन
करनेमें कारण बनते है ॥ ६॥
सभाम निर्भीक बोलनेवाला, स्मरणशक्तिसे
सम्पन्न, प्रवचन-कुशल्, शस्त्र और शास्रे परिनिष्ठित
तथा दूतोचित कर्मके अभ्याससे सम्पन्न पुरुष
राजदूत होनेके योग्य होता है । निसृष्टार्थ (जिसपर
संधि- विग्रह आदि कार्यको इच्छानुसार करनेका
पूरा भार सौंपा गया हो, वह), मितार्थ (जिसे
परिमित कार्य-भार दिया गया हो, यथा -इतना
ही करना या इतना ही बोलना चाहिये), तथा
शासनहारक (लिखित आदेशको पहुंचानेवाला) -
ये दूतके तीन भेद कहे गये हैँ ॥ ७-८॥
दूत अपने आगमनकी सूचना दिये चिना शतके
दुर्ग तथा संसदूमें प्रवेश न करे (अन्यथा वह
सदेहका पात्र बन जाता है)। वह कार्यसिद्धिके
लिये समयकौ प्रतीक्षा करे तथा शत्रु राजाकी
आज्ञा लेकर बहाँसे विदा हो। उसे शत्रुके छिद्र
(दुर्बलता) -की जानकारी प्राप्त करनी चाहिये।
उसके कोष, मित्र और सेनाके विषयमे भी वह
जाने तथा शत्रुकौ दृष्टि एवं शरीरकी चेष्टाओंसे
अपने प्रति राग और विरक्तिका भी अनुमान कर
लेना चाहिये ॥ ९-१०॥
वह उभय पक्षोंके कुलकी (यथा-' आप
उदितोदित कुलके रल्न हैं! आदि), नामकी (यथा--
“आपका नाम दिग्दिगन्तमें विख्यात है' इत्यादि),
द्रव्यकौ (यथा--' आपका द्रव्य परोपकारमें लगता
है" इत्यादि) तथा श्रेष्ठ कर्मकी (यथा--' आपके
सत्कर्मकी श्रेष्ठ लोग भूरि-भूरि प्रशंसा करते है"
आदि कहकर) बडाई करें। इस तरह चतुर्विध
स्तुति करनी चाहिये। तपस्वीके वेषमें रहनेबाले
अपने चरके साथ संवाद करे। अर्थात् उनसे बात
करके यथार्थ स्थितिको जाननेकी चेष्टा करे॥ ११॥