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जब विजिगीषु और शत्रु-दोनों एक-दूसरेकी | किसी भी शर्तपर संधि न करना चाहते हों, तब
शक्तिका विघात न कर सकनेके कारण आक्रमण
न करके बैठ रहें तो इसे 'आसन' कहा जाता है;
इसके भी "यान ' की ही भाँति पाँच भेद होते हैं--
१. विगृह्य आसन, २. संधाय आसन, ३. सम्भूय
आसन्, ४. प्रसङ्गसन तथा ५. उपेक्षासन*॥ २७ ‡ ॥
दो बलवान् शत्रुओंके बीचमें पड़कर वाणीद्रारा
दोनोंको ही आत्मसमर्पण करे - यै और मेरा!
राज्य दोनोकि ही हैं', यह संदेश दोनोंके ही पास
गुप्तरूपसे भेजे और स्वयं दुर्गमें छिपा रहे। यह
“ट्ैधीभाव 'की नीति है। जब उक्त दोनों शत्रु पहलेसे
ही संगठित होकर आक्रमण करते हों, तब जो
उनमें अधिक बलशाली हो, उसकी शरण ले। यदि
वे दोनों शत्रु परस्पर मन्त्रणा करके उसके साथ
विजिगीषु उन दोनोंके ही किसी शत्रुका आश्रय ले
अथवा किसी भी अधिक शक्तिशाली राजाकी
शरण लेकर आत्मरक्षा करे ॥ २८--३० ॥
यदि विजिगीषुपर किसी बलवान् शत्रुका आक्रमण
हो और वह उच्छिन होने लगे तथा किसी उपायसे
उस संकटका निवारण करना उसके लिये असम्भव
हो जाय, तब वह किसी कुलीन, सत्यवादी, सदाचारी
तथा शत्रुकी अपेक्षा अधिक बलशाली राजाकी
शरण ले। उस आश्रयदाताके दर्शनके लिये उसकी
आराधना करना, सदा उसके अभिप्रायके अनुकूल
चलना, उसीके लिये कार्य करना और सदा उसके
प्रति आदरका भाव रखना -यह आश्रय लेनेवालेका
व्यवहार बतलाया गया है ॥ ३१-३२॥
इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'याड्युण्यकथन नामक
दो सौ चालीसर्वाँ अध्याय पूदर हुआ॥ २४०१
न
* जब श्रु और विजिगीषु परस्पर आक्रमण करके कारणवशात् युद्ध बंद करके बैठ जायं तो इसे " विगृहयास्ल ' कहते हं । यह
एक प्रकार है। विजिगौषु शत्रुके किसी प्रदेशको क्षति पहुँचाकर जब स्वत: युद्धे चिरत होकर बैठ खता है, तब यह भी 'विगृद्यासन'
कहलाता है।
यदि शत्रु दुर्गके भीतर स्थित होनेके कारण पकड़ा न जा सके, तो उसके आसार ( पित्रयर्णं) तथा योज (अनग्ाजकों फसल
आदि)-को नष्ट करके उसके साथ विग्रह छोड़कर बैठ रहे। दोर्चकालतक ऐसा करतेसे प्रजा अयदि प्रकृतियाँ उस शत्रु राजासे विरक्त
हो जातौ हैं। अत: समयानुसार वह वशीभूत हो जाता है। शत्रु और विजिगीचु समान बलशाली होनेके कारण युद्ध क्िड़नेपर जब
मानरूपसे शोण होने लगें, तब परस्पर संधि करके बैठ जायें। यह ` संधाय आसन' कहलाता है। पूर्वकालमें निवातकवचोंके साथ
जब दिग्विजयों रावणका युद्ध होने लगा, तब दोनों पक्ष ब्रह्माजीके वरदानसे शक्तिशाली होनेके करण एक-दूसरेको परास्त न कर
सके। उस दशार्मे क्रह्मजोकों हो बोचमें डालकर रावण संधि करके चैठ रहा। यह 'संधाय आस्त" का उदाहरण है।
विजिगीषु और उसके शत्रुकों उदासीत और मध्यमसे आक्रमणकी समानरूपसे शङ्खा हो, तब उन दोनॉकों मिल जाना चाहिये।
इस प्रकार मिलकर चैठना सम्भूय आसन्" कहलाता है। जब मध्यम और उदासीनमेंसे कोई-सा भी विजिगीषु और उसके शत्रु -दोनोंका
विनाश करना चाहता हो, तब वह उन दोजोंका शत्रु समझा जाता है; उस दशाँ विजिगीषु अपने शत्रुके साथ मिलकर दोनोंके ही
अधिक लवान् शत्रुभूत उक्र मध्यम या उदासीनका सामना करें। यही * सम्भूय आसन' है।
चदि जिजिगीषु किसी अन्य शत्रुपर आक्रमणकी इच्छा रखता हो; किंतु कार्यान्तर (अर्थलाध या अनर्थ-प्रतिकार)-के प्रसङ्गसे
अन्यत्र बैठे रहे तो इसे 'प्रसब्रासत' कहते हैं।
अधिक शक्तिशाली शत्रुकों उपेक्षा करके अपने स्थानपर बैठे रहना “उपेक्षासन' कहलाता है। भगवान् श्रोकृष्णने जब
पारिजातहरण किया था, उस समय उन्हें अधिक शक्तिशाली जावकर इच्द्रदेव उपेक्षा करके बैठ रहे, ग्रह, उपेक्षासत्रका उदाहरण है।
इसका एक दूसरा उदाहरण रुक्मी है । महमभारत-युद्धमे वह कष और क्रैशिकोंकों सेना लेकर मारों-आरोसे कौरवो और पाण्डवोंके पास
गया और बोला, "यदि तुम डरे हुए हो तो हम तुम्हारी सहायता करके तुम्हें विजय दिलायें।' उसको इस बातपर दोनोंने उसको
उपेक्षा कर दी। अत: वह किसी ओरसे युद्ध न करके अपने घरपर ही बैठा रहा।