चर दो प्रकारके होते हैं--प्रकाश (प्रकट)
और अप्रकाश (गुप्त)। इनमें जो प्रकाश है,
उसकी “दूत' संज्ञा है और अप्रकाश 'चर” कहा
गया है। वणिक् (वैदेहक), किसान (गृहपति),
लिङ्गी (मुण्डित या जटाधारी तपस्वी), भिक्षुक
(उदास्थित), अध्यापक ( छात्रवृत्तिसे रहनेवाला-
कार्पटिक) - इन चारोकी स्थितिके लिये संस्थाएँ
है । इनके लिये वृत्ति (जीविका) -की व्यवस्था
की जानी चाहिये, जिससे ये सुखसे रह
सर्के ॥ १२॥
जब दूतकौ चेष्टा विफल हौ जाय तथा शत्र
व्यसनग्रस्त हो, तब उसपर चढ़ाई करे ॥ १२ \ ॥
जिससे अपनी प्रकृतियोँ व्यसनग्रस्त हो गयी
हों, उस कारणको शान्त करके विजिगीषु शत्रुपर
चढ़ाई करे। व्यसन दो प्रकारके होते रँ - मानुष
और दैव। अनय और अपनय दोनोंके संयोगसे
प्रकृति-व्यसन प्राप्त होता है । अथवा केवल दैवसे
भी उसकी प्राप्ति होती है। वह श्रेय (अभीष्ट
अर्थ) -को व्यस्त (क्षिप्त या नष्ट) कर देता है,
इसलिये “व्यसन ' कहलाता है । अग्नि (आग लगना),
जल (अतिवृष्टि या बाढ़), रोग, दुर्भिक्ष (अकाल
पड़ना) और मरक (महापार) - ये पाँच प्रकारके
“दैव -व्यसन ' है । शेष ' मानुष-व्यसन ' है । पुरुषार्थ
अथवा अधर्ववेदोक्त शान्तिकर्मसे दैव-व्यसनका
निवारण करे। उत्थान-शीलता (दुर्गादि-
निर्माणविषयक चेष्टा) अथवा नोति--संधि या
साम आदिक प्रयोगके द्वारा मानुष-व्यसनकी शान्ति
करे॥ १३- १५ ‡ ॥
मन्त्र (कार्यका निश्चय), मन्त्रफलकी प्राप्ति,
[१ अग्निपुराण [१
व्यय, दण्डनीति, शत्रुका निवारण तथा व्यसनको
टालनेका उपाय, राजा एवं राज्यकी रक्षा-ये
सब अमात्यके कर्म हैँ । यदि अमात्य व्यसनग्रस्त
हो तो वह इन सब कर्मोकी नष्ट कर देता
है ` ॥ १६-१७ २ ॥
सुवर्ण, धान्य, वस्त्र, वाहन तथा अन्यान्य
दरव्योका संग्रह जनपदवासिनी प्रजाके कर्म है । यदि
प्रजा व्यसनग्रस्त हो तो वह उपर्युक्त सब कार्योका
नाश कर डालती है ॥ १८ + ॥
आपत्तिकाले प्रजाजनोंकी रक्षा, कोष और
सेनाकी रक्षा, गुप्त या आकस्मिक युद्ध, आपत्तिग्रस्त
जनोंकी रक्षा, संकटमें पड़े हुए मित्रों और अमित्रोंका
संग्रह तथा सामन्तो और वनवासियोंसे प्राप्त होनेवाली
बाधाओंका निवारण भी दुर्गका आश्रय लेनेसे
होता है। नगरके नागरिक भी शरण लेनेके लिये
दर्गपतियोंका कोष आदिके द्वारा उपकार करते
हैं। (यदि दुर्ग विपत्तिग्रस्त हो जाय तो ये सब
कार्य विपन्न हो जाते हैं।)॥१९-२०३॥
भृत्यों (सैनिक आदि)-का भरण-पोषण,
दानकर्म, भूषण, हाथी-घोड़े आदिका खरीदना,
स्थिरता, शत्रुपक्षकी लुब्ध प्रकृतियोंमें धन देकर
फूट डालना, दुर्गका संस्कार (मरम्मत और
सजावट), सेतुबन्ध (खेतीके लिये जलसंचय करनेके
निमित्त बाँध आदिका निर्माण), वाणिज्य, प्रजा
और मभित्रोंका संग्रह, धर्म, अर्थ एवं कामकी
सिद्धि--ये सब कार्य कोषसे सम्पादित होते
हैं। कोषसम्बन्धी व्यसनसे राजा इन सबका
नाश कर देता है; क्योंकि राजाका मूल है--
कोष॥ २१-२२॥
कार्यका अनुष्ठान, भावी उनतिका सम्पादन, आय-। मित्र, अमित्र (अपकारकी इच्छावाले शतु). , भावी उनतिका सम्पादन, आय- भित्र, अमित्र (अपकारकी इच्छावाले शत्रु).
१. यहाँ कोहपें दिये गये “वैदेहक ' आदि शब्द ' वणिक् ' आदि संस्थाओंके चरोकि नायान्तर हैं।
२. इन कमो मन्त्र या कार्यका निश्चय मनतरीके अधीन है, शत्रुओंको टूरसे हौ भगाकर मन्वरसाध्य फलकी प्राप्ति दूतके अधीन
है, कार्यका अनुझान (दुर्शादिकर्मकी प्रवृत्ति) अध्यक्षके अधीन है, आयति अधवा भावी उन्नतिका सप्यादन अमात्वोँके अधौत है, आय
और व्यय अक्षपटलिक ( अर्थमन्त्रों)-के अधोन हैं, दष्डनोति धर्मस्य ( न्यायाधिकारो ) -के हाथपें है तथा शत्रुओका निवारण मित्र-
साध्य कर्म है--ऐसा विभाग जयमङ्गलाकारने किया है ।