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दो सौ आठवाँ अध्याय `
व्रतदानसमुच्यय
अग्निदेव कहते है -- वसिष्ठ } अब मैं सामान्य
व्रतो और दानोकि विषयमें संक्षेपपूर्वक कहता हूं ।
प्रतिपदा आदि तिथियों, सूर्य आदि वारो, कृत्तिका
आदि नक्षत्रों, विष्कुम्भ आदि योगो, मेष आदि
राशियों और ग्रहण आदिके समय उस काले जो
व्रत, दान एवं तत्सम्बन्धी द्रव्य एवं नियमादि
आवश्यक है, उनका भी वर्णनं करूँगा।
ब्रतदानोपयोगी द्रव्य ओर काल सबके अधिष्ठातृ
देवता भगवान् श्रीविष्णु हैं। सूर्य, शिव, ब्रह्मा,
लक्ष्मी आदि सभी देव-देवियाँ श्रीहरिकी ही
विभूति हैँ । इसलिये उनके उद्ेश्यसे किया गया
त्रत, दान और पूजन आदि सब कुछ देनेवाला
होता है ॥ १--३॥
श्रीविष्णु-पूजन-मन्त्र `
जगत्पते समागच्छ आसनं पाद्यमर्ध्यकम् ॥
मधुपर्कं तथाऽऽचामं सानं वस्त्रं च गन्धकम्।
पुष्यं धूपं च दीपं च नैवेद्यादि नमोऽस्तु ते ॥
जगत्पते ¦ आपको नमस्कार है । आइये और
आसन, पाद्य, अर्घ्य, मधुपर्क, आचमन, स्नान,
वस्त्र, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य ग्रहण
कीजिये ॥ ४-५॥
पूजा, व्रत ओर दानमे उपर्युक्त मन््रसे श्रीविष्णुकी
अर्चना करनी चाहिये। अब दानका सामान्य
संकल्प भी सुनो -' आज मैं अमुक गोत्रवाले
अमुक शर्मा आप ब्राह्मण देवताकों समस्त पापोंकी
शान्ति, आयु और आरोग्यकी वृद्धि, सौभाग्यके
उदय, गोत्र और संततिके विस्तार, विजय एवं
धनकी प्राप्ति, धर्म, अर्थ और कामके सम्पादन
तथा पापनाशपूर्वक संसारसे मोक्ष पानेके लिये
विष्णुदेवता-सम्बन्धी इस द्रव्यका दान करता हूँ।
मैं इस दानकी प्रतिष्ठा (स्थिरता)-के लिये
आपको यह अतिरिक्त सुवर्णादि द्रव्य समर्पित
करता हूँ। मेरे इस दानसे सर्वलोकेश्वर भगवान्
श्रीहरि सदा प्रसन्न हों। यज्ञ, दान और ब्रतोंके
स्वामी! मुझे विद्या तथा यश आदि प्रदान
कीजिये। मुझे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप
चारों पुरुषार्थं तथा मनोऽभिलषित वस्तुसे सम्पन्न
कीजिये ' ॥ ६-- १० २ ॥
जो मनुष्य प्रतिदिन इस व्रत-दान- समुच्चयका
पठन अथवा श्रवण करता है, बह अभीष्ट वस्तुसे
युक्त एवं पापरहित होकर भोग और मोक्ष
दोनोंको प्राप्त करता है। इस प्रकार भगवान्
वासुदेव आदिसे सम्बन्धित नियम और पृजनसे
अनेक प्रकारके तिथि, वार, नक्षत्र, संक्रान्ति, योग
ओर पन्वादिसम्बन्धी ब्रतोंकाः अनुष्ठान सिद्ध
होता है॥ ११-१२॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महाएराणमें 'ब्रतदानसमृच्चयका वर्णन” नामक
दो सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥# २०८॥
न
दो सौ नवां अध्याय
धनके प्रकार; देश-काल और पात्रका विचार; पात्रभेदसे दानके फल-भेदः;
द्रव्य-देवताओं तथा दान-विधिका कथन
अग्निदेव कहते हैं-- मुनिश्रेष्ट! अब मैं भोग | करता हूँ, सुनो। दानके “इष्ट ' ओर "पूर्त" दो भेद
और मोक्ष प्रदान करनेवाले दानधर्पोका वर्णन | है । दानधर्मका आचरण करनेवाला सब कुछ प्राप्त