मङ्गल, बुध-चन्द्रमा, बृहस्पति-शुक्र, शनि-मङ्गल
तथा सूर्य-शनि--ये ग्रह-स्वामी होते हैः ॥ १-२॥
चालीसको साठसे गुणा करे। उसमें ग्यारहसे
भाग दे। लब्धिको छ:से गुणा करके गुणनफलमें
फिर ग्यारहसे ही भाग दें। लब्धिको तीनसे गुणा
करके गुणनफलमें एक मिला दे तो उतनी ही
बार नाडीके स्फुरणके आधारपर पल होता है।
इसके बाद भी अहर्निश नाडीका स्फुरण होता ही
रहता है।
उदाहरण--जैसे ४०५६०- २४०० । ०“/ “२१९
लब्धि स्वल्पान्तरसे हुई। इसे छःसे गुणा किया तो
२१९८६०१३१४ गुणनफल हुआ। इसमें फिर ११
से भाग दिया तो '१७५/ «११९ लब्धि, शेष^५,
शेष छोड़ दिया। लब्धि ११९ को ३ से गुणा
किया तो गुणनफल ३५७ हुआ। इसमें १ मिलाया
तो ३५८ हुआ। इसको स्वल्पान्तरसे ३६० मान
लिया। अर्थात् करमूलगत नाडीका ३६० बार
स्फुरण होनेके आधारपर ही पल होते हैं, जिनका
ज्ञानप्रकार आगे कहेंगे। इसी तरह नाड़ीका स्फुरण | उदयकाल एवं अस्तकालका मान अहोरात्रके
अहर्निश होता रहता है और इसी मानसे अकारादि
स्वरोंका उदय भी होता रहता है ॥ ३--४३ ॥
(अब व्यावहारिक काल-ज्ञान कहते हैं--)
तीन बार स्फुरण होनेपर १ “उच्छास' होता है
अर्थात् १ “अणु होता है, ६ “उच्छास'का १
"पल" होता है, ६० पलका एक "लिप्ता" अर्थात्
१ "दण्ड" होता है, (यद्यपि 'लिप्ता' शब्द कला-
वाचक है, जो कि ग्रहोंके राश्यादि विभागमें
लिया जाता है, फिर भी यहाँ काल-मानके
प्रकरणमें “लिप्ता' शब्दसे “दण्ड” ही लिया
जायगा; क्योंकि 'कला' तथा “दण्ड'-ये दोनों
भचक्रके पष्टयंश-विभागमें ही लिये गये हैं।) ६०
दण्डका १ अहोरात्र होता है। उपर्युक्त ॐ, इ, उ,
ए. ओ-स्वरोकौ क्रमसे बाल, कुमार्, युवा,
वृद्ध, मृत्यु -ये पाँच संज्ञाएँ होती है । इनमें किसी
एक स्वरके उदयके बाद पुनः उसका उदय पाँचवें
खण्डपर होता है। जितने समयसे उदय होता
है, उतने ही समयसे अस्त भी होता है । इनके
उदयकाल एवं अस्तकालका मान॒ अहोरात्रके
९. इस विषयके स्प बोधके लिये निम्नङ्कित स्वरचक्र देखिये--
३. इस विकवपर भास्कराचार्यं अपत्रो 'शणिताध्याय' जापक पुस्तकके 'कालमानाध्याय' में लिखते हैं--
गुर्वक्षै: खेन्दुमितरणुस्तैः पद्भि: पल॑ तैर्थटिका खवद्भिः । स्या घटीचष्टिफ: खरमैमांसो दिनैस्तैटरिकृभिल्ञ वर्षम्॥ २॥
“दस गुरु अक्षोके उच्चारणमें जितना समय लगता है, उसे एक ' अयु ' कहते हैं और ६ अणुओंका एक पल” होता है। ६० पलका
१ "दण्ड, ६० दण्डका १ 'अहोरात्र', ३० दिन-रातका एक 'मालर' और १२ मासका एक ' वर्ष ' होता है।''