* अध्याय १२२ *
मृगशिरामें हो तो पाँच राततक रहता है। आद्रमिं | पूर्वाभाद्रपदाका रोग छूटता ही नहीं। उत्तराभाद्रपदाका
रोग हो तो प्राणनाशक होता है। पुनर्वसु तथा पुष्य
नक्षत्रे रोग हो तो सात राततक बना रहता है।
आश्लेषाका रोग नौ राततक रहता है। मघाका
रोग अत्यन्त घातक या प्राणनाशक होता है।
पूर्वाफाल्गुनीका रोग दो मासतक रहता है।
उत्तराफाल्गुनीमें उत्पन्न हुआ रोग तीन दिरनोतक
रहता है। हस्त तथा चित्राका रोग पंद्रह दिनोंतक
पीड़ा देता है। स्वातीका रोग दो मासतक,
विशाखाका बीस दिन, अनुराधाका रोग दस दिन
और ज्येष्ठका पंद्रह दिन रहता है। मूल नक्षत्रे
रोग हो तो वह छूटता ही नहीं है। पूर्वाषादाका
रोग पाँच दिन रहता है। उत्तराषाढ़ाका रोग बीस
दिन, श्रवणका दो मास, धनिष्ठाका पंद्रह दिन
और शतभिषाका रोग दस दिनोंतक रहता है।
रोग सात दिनोंतक रहता है*। रेवतीका रोग दस
रात और अश्विनीका रोग एक दिन-रात मात्र
रहता है; किंतु भरणीका रोग प्राणनाशक होता है।
( रोग-शान्तिका उपाय-- ) पश्चधान्य, तिल
ओर घृत आदि हवनीय सामग्रीद्वारा गायत्री-
मन्त्रसे हवन करनेपर रोग छूट जाता है और शुभ
फलकी प्राप्ति होती है तथा ब्राह्मणको दूध
देनेवाली गौका दान करनेसे रोगका शमन हो
जाता है॥ ७१--७७ ३॥
(अष्टोत्तरी-क्रमसे) सूर्यकी दशा छः वर्षकी
होती है। इसी प्रकार चनद्रदशा पंद्रह वर्ष, मङ्गलकी
आठ वर्ष, बुधकी सत्रह वर्ष, शनिकी दस वर्ष,
बृहस्पतिकी उन्नीस वर्ष, राहुकी बारह वर्ष और
शुक्रको इक्कीस वर्षं महादशा चलती है॥ ७८-७९॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुदणमें 'ज्यौतियशञास्वका कथन” नामक
एक सौ इज्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १२१॥
न~
एक सौ बाईसवाँ अध्याय
कालगणना-पञ्चाङ्गमान-साधन
अग्निदेव कहते है -- मुने ! (अव मैं) वर्षोंके
समुदायस्वरूप "काल" का वर्णन कर रहा हूँ ओर
उस कालको समझनेके लिये मैं गणित बतला रहा
हूँ। (ब्रह्म-दिनादिकालसे अथवा सृष्टयारम्भकालसे
अथवा व्यवस्थित शकारम्भसे) वर्षसमुदाय- संख्याको
१२ से गुणा करे। उसमें चैत्रादि गत मास-संख्या
मिला दे। उसे दोसे गुणा करके दो स्थानों रखे ।
प्रथम स्थानमें चार मिलाये, दूसरे स्थानें आठ
सौ पैंसठ मिलाये। इस तरह जो अङ्क सम्पन्न हो,
बह ' सगुण' कहा गया है । उसे तीन स्थानोंमें रखे;
उसमें बीचवालेको आठसे गुणा करके फिर
चारसे गुणित करे। इस तरह मध्यका संस्कार
करके गोमृत्रिका-क्रमसे रखे हुए तीनोंका
यथास्थान संयोजन करे। उसमें प्रथम स्थानका
नाम "ऊर्ध्वं, बीचका नाम 'मध्य” और तृतीय
स्थानका नाम "अधः ' ऐसा रखे । अधः-अद्भमें
३८८ और मध्याडुमें ८७ घटाय । तत्पश्चात् उसे
६० से विभाजित करके शेषको (अलग) लिखे।
फिर लब्धिको आगेवाले अङ्के मिलाकर ६० से
विभाजित करे । इस प्रकार तीन स्थाने स्थापित
अद्कोमंसे प्रथम स्थानके अङ्के ७ से भाग देनेपर
शेष बची हुई संख्याके अनुसार रवि आदि वार
* *आुध्तायमेज्यादितिधातुभे नगाः ' (पुह० चिन्ता०, तक्ष० प्रक० ४६) -के अनुसार उत्तराभाद्रपदामें उत्पन्न रोग सात दिने रहता है ।