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अतिसर्गपर्व, द्वितीय खण्ड ] « सत्यनारायण-त्रतके प्रसंगमें साधु वणिक्‌ एवं जामाताकी कथा *

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सत्यनारायण-त्रतके प्रसंगे साधु वणिक्‌ एवं जामाताकी कथा

सूतजी बोले--ऋषियो ! अब मैं एक साधु वणिक्की

कथा कहता हूँ। एक बार भगवान्‌ सत्यनारायणका भक्त

मणिपूरक नगरका स्वामी महायशस्वी राजा चन्द्रचूड अपनी

प्रजाओकि साथ ब्रतपूर्वक सत्यनारायण भगवान्‌का पूजन कर

रहा था, उसी समय रल्नपुर (रलसारपुर) निवासी महाधनी

साधु वणिक्‌ अपनी नौकप्को धनसे परिपूर्ण कर नदी-तटसे

यात्रा करता हुआ वहाँ आ पहुँचा। वहाँ उप्ते अनेक

आमवासियोंसहित मणि-मुक्तासे निर्मित तथा श्रेष्ठ वितानादिसे

तथा वेदघ्वनि भी वहाँ उसे सुनायी पड़ी। उस रम्य स्थानको

देखकर साधु वणिक्‌ने अपने नाविकको आदेश दिया कि

यहींपर नौका रोक दो । मैं यहाँके आयोजनको देखना चाहता

हूँ। इसपर नाविकने वैसा हो किया। नावसे उतरकर उस

वणिक्ने लोगोंसे जानकी प्राप्त को और वह सत्यनागयण

भगवान्‌की कथा-मण्डपमें गया तथा वहाँ उसने उन सभीसे

पूछा--'महाशय ! आपलोग यह कौन-सा पुण्यकार्य कर रहे

है ?" इसपर उन लोगेन कहा--“हमलोग अपने माननीय

राजाके साथ भगवान्‌ सत्यनारायणकी पूजा-कथाका आयोजन

कर रहे हैं। इसी ब्रतके अनु्ठानसे इन्द निष्कण्टक राज्य प्राप्त

हुआ है। भगवान्‌ सत्यनारायणकी पूजासे घनकी कामनावाला

दरव्य-लाभ, पुत्रकी कामनावाला उत्तम पुत्र, ज्ञानकी

कामनावाला ज्ञान-दृष्टि प्राप्त करता है और भयातुर मनुष्य

सर्वथा निर्भय हो जाता है। इनकी पूजासे मनुष्य अपनी सभी

कामनाओंको प्राप्त कर लेता है।'

यह सुनकर उसने गलेमें वस्रकों कई बार लपेटकर

भगवान्‌ सत्यनारायणको दण्डवत्‌ प्रणाम कर सभासदोंको भी

सादर प्रणाम किया और कहा--'भगवन्‌ ! मैं संततिहीन हूँ,

अतः मेरा सारा ऐश्वर्य तथा सारा उद्यम सभी व्यर्थ है, हे

कृपासागर ! यदि आपकी कृपासे पुत्र या कन्या मैं प्राप्त

करूँगा तो स्वर्णमयी पताक बनाकर आपकी पूजा करूँगा ।'

इसपर सभासदोने कहा--'आपकी कामना पूर्ण हो ।' तदनन्तर

उसने भगवान्‌ सत्यनारायण एवं सभासदौको पुनः प्रणामकर

१-अष्टवर्षा . भवेद्गौरी नववर्षा च रोहिणों॥

प्रसाद ग्रहण किया और हृदयसे भगवान्‌का चिन्तन करता

हुआ वह साधु वणिक्‌ सबके साथ अपने घर गया। घर

आनेपर माङ्गलिक द्रब्यॉसे शियोनि उसका यथोचित स्कगत

किवा। साधु वणिक्‌ अतिशय आश्चर्ये साथ मङ्गलमय

अन्तःपुरे गया । उसकी पतिव्रता पत्नी लीलावतीने भी उसकी

खियोचित सेवा की । भगवान्‌ सत्यनारायणकी कृपासे समय

आनेपर बन्धु-बान्धयोको आनन्दित करनेवाली तथा कमलके

समान नेत्रोवाली उसे एक कन्या उत्पन्न हुई । इससे साधु

वणिक्‌ अतिशय आनन्दित हुआ और उस समय उसने पर्याप्त

धनका दान किया । वेदज्ञ ब्राह्मणॉंको बुलाकर उसने कन्याके

आतकर्म आदि मङ्गलकृत्य सम्पन्न किये । उस बालिकाकी

जन्मकुष्डलौ बनवाकर उसका नाम कलावती रखा । कलानिधि

चन्द्रमाकी कलाके समान वह कलावती नित्य बदृने लगी ।

आठ वर्धकी बालिका गौरी, नौ वर्की रोहिणी, दस वर्धकी

कन्या तथा उसके आगे (अर्थात्‌) बारह वर्धकी बालिका प्रौढ़ा

या रजस्वला कहलाती रै! । समयानुसार कलावती भी

बढ़ते-बढ़ते विवाहके योग्य हो गयी । उसका पिता

कलावतीको विवाह-योग्य जानकर उसके सम्बन्धकी चिन्ता

करने लगा।

काझनपुर नगरम एक शंखपति नामका वणिक्‌ रहता

था। यह कुलीन, रूपवान्‌, सम्पत्तिशाली, शील और उदारता

आदि गुणोंसे सम्पन्न था । अपनी पुत्रीके योग्य उस वरर

देखकर साधु वणिक्ने शेखपतिक वरण कर लिया और शुभ

लप्रमे अनेक माङ्गलिक उपचारोके साथ अम्निके सांनिध्ये

वेद, वाद्य आदि ध्वनियोंके साथ यथाविधि कन्या उसे प्रदान

कर दी, साथ ही मणि, मोती, मगा, वस्नाभूषण आदि भी उस

साधु वणिक्‌ने मङ्गलके लिये अपनी पुत्री एवं जामाताको प्रदान

किये । साधु वणिक्‌ अपने दामादको अपने घरमे रखकर उसे

पुत्रके समान मानता था और वह भी पिताके समान साधु

वणिक्का आदर करता धा । इस प्रकार बहुत समय बीत

गया । साधु वणिकूने भगवान्‌ सत्यनारायणक्मै पूजा करनेका

पहले यह संकल्प लिया था कि "संतान प्राप्त होनेपर मैं

दशवर्षा भवेत्‌ कन्या ततः प्रौढा रजस्वला । (प्रतिसरापिर्व २। २८।२१-२२)

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