२९३
एवं पूजित करे। पूजनके मन्त्र इस प्रकार हैं--
"ॐ हं क्रियाशक्तये नमः। ॐ हीं महागौरि
रुद्रदयिते स्वाहा ।' निम्नाद्धित मन्त्रके द्वार पिण्डिके
पूजन करे-' ॐ हीं आधारशक्तये नमः। ॐ हां
वृषभाय नमः।'॥ ९९- १०१॥
धारिका, दीप्ता, अत्युग्रा, ज्योत्स्ना, बलोत्कटा,
धात्री ओर विधात्री--इनका पिण्डीमें न्यास करे;
अथवा वामा, ज्येष्ठा, क्रिया, ज्ञाना ओर वेधा
(अथवा रोधा या प्रह्मी) -इन पाँच नायिकाओंका
न्यास करे। अथवा क्रिया, ज्ञाना तथा इच्छा-इन
तीनका ही न्यास करे; पूर्ववत् शान्तिमूर्तियोंमें
तमी, मोहा, क्षुधा, निद्रा, मृत्यु, माया, जरा और
भया--इनका न्यास करे; अथवा तमा, मोहा,
घोरा, रति, अपज्वरा--इन पाँचोंका न्यास करे; या
क्रिया, ज्ञाना और इच्छ--इन तीन अधिनायिकाओंका
आत्मा आदि तीन तीव्र मूर्विवाले तत्त्वोमें न्यास
करे। यहाँ भी पिण्डिका, ब्रह्मशिला आदिमे
पूर्ववत् गौरी आदि शम्बरो (मन्त्रो) द्वारा हौ सब
कार्य विधिवत् सम्पन्न करे॥ १०२ -१०६॥
इस प्रकार न्यास-कर्म करके कुण्डके समीप
जा, उसके भीतर महेश्वरका, मेखलाओंमें चतुर्भुजका,
नाभिमें क्रियाशक्तिका तथा ऊर्ध्वभागे नादका
न्यास करे। तदनन्तर कलश, वेदी, अग्रि और
शिवके द्वारा नाडीसंधान-कर्म करे। कमलके
तन्तुकी भाँति सूक्ष्मशक्ति ऊर््वगत वायुकी सहायतासे
ऊपर उठती और शून्य मार्गसे शिवमें प्रवेश करती
है। फिर वह ऊर्ध्वगत शक्ति वहाँसे निकलती
और शून्यमार्गसे अपने भीतर प्रवेश करती है । इस
प्रकार चिन्तन करे। मूर्तिपालकोंको भी सर्वत्र
इसी प्रकार संधान करना चाहिये ॥ १०७ --११०॥
कुण्डे आधार-शक्तिका पूजन करके, तर्पण
करनेके पश्चात्, क्रमशः तत्त्व, तत्त्वेश्वर, मूर्ति और
मूर्ती श्रोंका घृत आदिसे पूजन और तर्पण करे।
फिर उन दोनों (तत्त्व, तत्त्वेश्वर एवं मूर्ति,
मूर्तीश्वर)-को संहिता-मन्त्रोंसे एक सौ, एक
सहस्र अथवा आधा सहस्र आहुतियाँ दे। साथ
ही पूर्णाहुति भी अर्पण करे । तत्त्व और तत्त्वेश्वरों
तथा मूर्ति और मूर्ती शचरोका पूर्वोक्त रीतिसे एक-
दूसरेके संनिधानमें तर्पण करके मूर्तिपालक भी
उनके लिये आहुतियाँ दें। इसके बाद द्रव्य ओर
कालके अनुसार वेदों और अङ्गारा तर्पण
करके, शान्ति-कलशके जलसे प्रोक्षित कुश-
मूलद्वारा लिङ्गके मूलभागका स्पर्श करके, होम-
संख्याके बराबर जप करे । हदय-मन््रसे संनिधापन
और कवच-मन््रसे अवगुण्ठन करे ॥ १११--११५॥
इस प्रकार संशोधन करके, लिङ्गके ऊर्ध्व-
भागमें ब्रह्मा ओर अन्त (मूल) भागे विष्णुका
पूजन आदि करके, शुद्धिके लिये पूर्ववत् सारा
कार्य सम्पन्न कर, होम-संख्याके अनुसार जप
आदि करे। कुशके मध्यभागसे लिङ्गके
मध्यभागका और कुशके अग्रभागसे लिङ्गके
अग्रभागका स्पर्श करे। जिस मन्त्रसे जिस प्रकार
संधान किया जाता है, वह इस समय बताया
जाता है-ॐ>हां हं, ॐ ३७ एं, ॐ भूं भू
बाहामूर्तये नम: । ॐ हां वां, आं ॐ आं घां, ॐ
भू भं वां वह्धिमूर्तये नमः * । इसी प्रकार यजमान
आदि मूर्तियोकि साथ भी अभिसंधान करना
चाहिये । पञ्चमूर््यात्मक शिवके लिये भी हृदयादि-
मन्त्रोंद्रारा इसी तरह संधानकर्म करनेका विधान
है । त्रितत्त्वात्मक स्वरूपे मूलमच्र अथवा अपने
बीज-मनत्ोद्वारा संधानकर्म करनेकी विधि है--
ऐसा जानना चाहिये। शिला, पिण्डिका एवं
* आचार्य सोमशस्भुकों 'कर्मकाण्ड-क्रमावलो ' में ये मन्त्र इस प्रकार उपलब्ध होते है- ॐ हां हां वा, 33 ॐ ॐ वा, ॐ लु लू
था, क्ष्मामूर्तये नमः। ॐ हां हां वा, ॐ> ॐ 35 चा, ॐ कै रूं वा, यट्डिमूर्तये नमः।