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अध्यमपर्त, दवितीय भाग ]

» यज्ञादि कर्ममें दक्षिणाका पाह्य +

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भूमि-दान भौ विदित रै । अन्यान्य दानों एवं यज्ञॉमें दक्षिणा एवै

दर्व्योका अला-अलग विधान है । विधानके अनुसार नियत

दक्षिणा देनेमें असमर्थ होनेपर यज्ञ-कार्यकी सिद्धिके लिये

देव-प्रतिमा, पुस्तक, रत्न, गाय, धान्य, तिल, रुद्राक्ष, फल एवं

पुष्य आदि भी दिये जा सकते हैं। सूतजी पुनः बोले--

ब्राह्मणों ! अच मैं पूर्णपात्रका स्वरूप बतला हूँ। उसे सुनें ।

काम्य-होममें एक मुष्टिके पूर्णपात्रका विधान है। आठ मुट्ठी

अन्रको एक कुछिका कहते हैं। इसी प्रमाणसे पूर्णपात्रोंका

निर्माण करना चाहिये। उन पात्रौको अलग कर द्वार-प्रदेशमें

रौप्य, महासिंहासनके लिये पाँच रौप्य, सहस्रार तथा मेरुपृष्ठ-

कुण्डके त्म्ये एक बैल तथा चार रौप्य, महाकुण्डके निर्माणमें

द्विगुणित स्वर्णपाद, वृत्तकुष्डके लिये एक रौप्य, पद्मकुष्डके

लिये वृषभ, अर्धचद्ध-कुष्डके लिये एक रौप्य, योनिकृष्डके

निर्माणमें एक धेनु तथा चार माज्ञा स्वर्ण, दौवयागमें तथा

उद्यापनमें एक माश्ञा स्वर्ण, इष्टिकाकरणमे प्रतिदिन दो पण

पारिश्रमिक देना चाहिये । खण्ड-कुण्ड- (अर्घ गोलाकार-)

निर्माताकों दस वराट (एक वयर बरावर अस्सो कौड़ो), इससे

बड़े कुण्डके निर्माणमें एक काकिणी (माशेका चौथाई भाग),

सात हाथके कुण्ड-निर्माणमें एक पण, बूहत्कूपके निर्माणमें

प्रतिदिन दो पण, गृह-निर्माणमें प्रतिदिन एक रत्ती सोना, कर

बनवाना हो तो आधा पण, रंगसे रैंगानेमें एक पण, वृक्षोकि

रोपणे प्रतिदिन डेढ़ पण पारिश्रमिक देना चाहिये। इसो तरह

पृथक्‌ कर्मोंमें अनेक रीतिसे पारिश्रमिकका विधान किया गया

है। यदि नापित्त सिरसे मुण्डन करे तो उसे दस काकिणी देनी

चाहिये। स्वियॉके नख आदिके रज्जनके सिये ककिणीके साथ

पण भो देना चाहिये। धानके रोपणमें एक दिनका एक पण

पारिश्रमिक होता है । तैल और क्षारसे वर्जित वस्र्की धुलाईके

लिये एक पण पारिश्रमिक देना चाहिये। इसमें वख्रकी

रूबाईके अनुसार कुछ वृद्धि भी की जा सकती है। मिट्टीके

खोदनेमें, कुदाल चत्मनेमें, इक्षु-दण्डके निष्पीडन तथा सहस

पुष्प-चयनमें दस-दस काकिणी पारिश्रमिक देना चाहिये।

खेरी माला बनानेमें एक काकिणी, बड़ी मात्र बनानेमें दो

काकिणी देना चाहिये। दीपकका आधार करसि या पीतलका

होना चाहिये। इन दोनोंके अभावमें मिट्टीका भी आधार बनाया

जा सकता है'।

सूतजी पुनः ओले--ब्राह्मणो! अब मैं कल्कि

विषयमें निश्चित मत प्रकर करता हूँ, जिसका उपयोग करनेसे

मङ्गरु होता है और यात्रामें सिद्धि प्राप्त होती है। कलशमें सात

अङ्ग अथवा पाँच अङ्ग होते हैं कलदामे केवल जल भरनेसे हो

सिद्धि नहीं होती, इसमें अक्षत और पुष्पोंगे देखताओंका

आयाहन कर उनका पूजन भी करना चाहिये--ऐसा च करनेसे

पूजन निष्फल हो जाता है। वट्‌, अश्वत्थ, घव-वृक्ष और

बिल्व-वृक्षके पल्‍लबोंको कलझके ऊपर रखे। कलद सोना,

चाँदी, तबा या मृत्तिकाके बनाये जाते हैं। कलशका निर्माण

अपनी सामर्ध्यके अनुसार करे । कका अभेद्य, निदिछद्र,

नवीन, सुन्दर एवं जलसे पूरिते होना चाहिये । कलदाके

निर्माणे विषयमें भी निश्चित प्रमाण बतलाया गया है । विना

मानके बना हुआ कला उपयुक्त नौ माना गया है । जहां

देवताओंका आवाहन-पूजन किया जाय, उन्दीकी संनिधिमें

कलङ्खाकी स्थापना करनी चहिये । व्यतिक्रम करनेषरं फलका

अपहरण राक्षस कर लेते है । स्वस्तिक बनाकर उसके ऊपर

निर्दिष्ट विधिसे कदा स्थापिते कर वरुणादि देवताओंका

आवाहन करके उनका पूजन करना चाहिये।

(अध्याय ३--५)

+-ब 2-5३.

१-भविष्यपुराणका यह अध्याय इतिहासकी दृष्टिसे बड़े महत्त्वका है । केव कग्रैटिल्य अर्थशास्त्र और पुक़नौतिसे हौ भारतकी प्राचीने मुद्राओं

एस फारिश्रसिकका पता चलता है। अन्य किसी पुराण या धार्मिक अन्योंगें इनका कोई संकेत कहीं किया गया है। गीताप्रेससे प्रकाशित 'माबरसँयाट

और रामराज्य' पुस्तकके परिअमिकस्णले प्रकरणमें इसपर पूरा विचार किया गया है तथा “कल्याण सन्‌ १९६४ दनक अकूधें थी इसपर विचार

प्रकर किया गया है।

२-प्रचल्तित परम्परायें आम, पीपल, बरगद, प्रक्ष (धाकड़) तथा उदुम्बरं (यूलर)--ये पश्च-पल्ल्ख कहे गये है ।

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