उनमें प्रथम भाग चतुष्कोण, द्वितीय भाग अष्टकोण
और तृतीय भाग वर्तुलाकार है। प्रथम भागमें
आत्मतत्त्व, द्वितीय भागे विद्यातत्व और तृतीय
भागमें शिवतत्त्वकी स्थिति है। इन भागोंमें सृषटिक्रमसे
एक-एक अधिपति हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु ओर
शिव नामसे प्रसिद्ध हैं। तदनन्तर मूर्तियों और
मूर्तीश्वरोंका पूर्वादि दिशाओकि क्रमसे न्यास करे ।
पृथ्वी, अग्रि, यजमान, सूर्य, जल, वायु, चन्द्रमा
ओर आकाश--ये आठ मूर्तिरूप हैं। इनका न्यास
करनेके पश्चात् इनके अधिपतियोंका न्यास
करना. चाहिये । उनके नाम इस प्रकार हैं--शर्व,
पशुपति, उग्र, रुद्र, भव, ईश्वर, महादेव और
भीम। इनके वाचक मन्त्र निम्नलिखित हैं--लं,
रं, शं, खं, चं, प॑, सं, हं* अथवा त्रिमात्रिक
प्रणव तथा “हां ' अथवा हदय-मन्त्र अथवा कहीं -
कहीं मूल-मन्त्र इनके (मूर्तियों और मूर्तिपतियोंके)
पूजनके उपयोगमें आते हैं। अथवा पश्चकुण्डात्मक
यागे पृथ्वी, जल, तेज, वायु ओर आकाश-इन
पाँच मूर्तियोंका ही न्यास करे ॥ ८१--८६॥
फिर क्रमशः इनके पाँच अधिपतियों-ब्रह्मा,
शेषनाग, रुद्र, ईश और सदाशिवका मन्त्रज्ञ पुरूष
सृष्टि-क्रमसे न्यास करे। यदि यजमान मुमुक्षु हो
तो वह पञ्चमूर्तियोकि स्थाने ' निवृत्ति आदि पाँच
कलाओं तथा उनके * अजात ' आदि अधिपतियोंका
न्यास करे। अथवा सर्वत्र व्याप्तिरूप कारणात्मक
त्रितत््वका ही न्यास करना चाहिये । शुद्ध अध्यामें
विद्येधरोंका और अशुद्धे लोकनायकोंका
मूर्तिपतियोंके रूपमे दर्शन करना चाहिये। भोगी
(सर्प) भी मन्त्रेश्वर है । तीस, आठ, पाँच और
तीन मूर्तिरूप-तत्त्व क्रमशः कहे गये हैं। ये ही
इनके तत्त्व हैं। इन तत््वोंके अधिपतियोंके मन्त्रोंका
दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है। ॐ हां शक्तितत्त्वाय
नमः। इत्यादि। ॐ हां शक्तितत्त्वाधिपाय नमः।
इत्यादि। ॐ हां क्ष्मामूर्तये नमः। ॐ हां
क्ष्मामूर्त्यश्चिपतये ब्रह्मणो नमः। इत्यादि। ॐ हां
शिवतत्त्वाय नमः। ॐ हां शिवतत्त्वाधिपतये
रुद्राय नमः। इत्यादि । नाभिमूलसे उच्चरित होकर
घण्टानादके समान सब ओर फैलनेवाले, ब्रह्मादि
कारणोंके त्यागपूर्वक, द्वादशान्तस्थानको प्राप्त हुए
मनसे अभिन्न तथा आनन्द-रसके उद्रमको पा
लेनेवाले मन्त्रका ओर निष्कल, व्यापक शिवका,
जो अडतीस कलाओंसे युक्त, सहस्रों किरणोंसे
प्रकाशमान, सर्वशक्तिमय तथा साङ्ग हैं, ध्यान
करते हुए उन्हें द्वादशान्तसे लाकर शिवलिङ्गे
स्थापित करें॥ ८७--९४॥
इस प्रकार शिवलिङ्गे जीवन्यास होना चाहिये,
जो सम्पूर्ण पुरुषार्थोका साधक है। पिण्डिका
आदिमे किस प्रकार न्यास करना . चाहिये, यह
बताया जाता है। पिण्डिकाको स्नान कराकर
उसमें चन्दन आदिका लेप करे और उसे सुन्दर
बस्त्रोंसे आच्छादित करके, उसके भगस्वरूप
छिद्रमें पश्चन आदि डालकर, उस पिण्डिकाको
लिङ्गसे उत्तर दिशामें स्थापित करे। उसमें भी
लिङ्गकी ही भाँति न्यास करके विधिपूर्वक
उसकी पूजा करे। उसका स्नान आदि पूजन-कार्य
सम्पन्न करके लिड्रके मूलभागमें शिवका न्यास
करे। फिर शक्त्यन्त वृषभका भी जान आदि
संस्कार करके स्थापन करना चाहिये॥ ९५--९८ ॥
तत्पश्चात् पहले प्रणवका, फिर "हां हूं हीं।'--
इन तीन बीजोंमेंसे किसी एकका उच्चारण करते
हुए क्रियाशक्तिसहित -आधाररूपिणी शिला-
पिण्डिकाका पूजन करे। भस्म, कुशा और तिलसे
तीन प्राकार (परकोटा) बनावे तथा रक्षाके लिये
आयुधोंसहित लोकपार्लोको बाहरकी ओर नियोजित
* सओपरम्भुकी ' कर्मकाण्ड -क्रमायलो 'में इन मन्त्रोंका फर “य, र, स, च्, च, य, ह, प्रणव" इस प्रकार दिया गवा है ।