५.३ यजुर्वेद संहिता
उसी रूप में हम आपको यहाँ स्थापित करते रै । हे 'नभ' नाम से जाने, जाने वाले अग्निदिव ! आप जिस उद्देश्य
से द्वितीय स्थान में हैं, उसी उद्देश्य से दूसरी बार पृथ्वी पर नष्ट न होने वाले यज्ञीयरूप में आपको स्थापित करते
हैं। जिस कारण आप तृतीय स्थान में अवस्थित हैं, उस नष्ट न होने वाले यज्ञीयरूप में आपको इस स्थान पर
स्थापित करते हैं । हे मृत्तिके देवताओं के निमित्त (उत्तर वेदिका के लिए) आपको स्थापित करते हैं ॥९ ॥
१७५. सि ४ इसि सपत्नसाही देवेभ्य: कल्पस्व सि&हासि सपत्नसाही देवेभ्य: शुन्धस्व
सिध्यसि सपत्नसाही देवेभ्यः शुम्भस्व ॥१० ॥
सिंहनी के समान शत्रुओं का नाश करने वाली हे उत्तर वेदिके ! आप अपनी सामर्थ्यं से देवों का हित करने
में समर्थ हैं। शत्रुओं का नाश करने वाली सिंहनी रूप, आप देवताओं के हित मे पवित्रता को प्राप्त हों । आप शत्रु
विनाशिनी सिंहनी हैं; शुद्ध होकर देवों के पक्ष में कार्य करें तथा उन्हें प्रसन्न करें ॥१० ॥
१७६. इन्द्रघोषस्त्वा वसुभिः पुरस्तात्पातु प्रचेतास्त्वा रुद्रै मनोजवास्त्वा
पितृभिर्दक्षिणतःपातु विश्वकर्मा त्वादित्यैरुत्तरतः पात्विदमहं तप्तं यज्ञाक्निःसुजामि॥
हे उत्तरवेदि ! अष्ट बसुओं के साथ इन्रदेव पूर्व दिशा से आपकी रक्षा करें । ग्यारह रुद्रो सहित वरुण देवता
पश्चिम की ओर से आपकी रक्षा करे । पितरों सहित यम देवता दक्षिण दिशा से आपकी रक्षा करें । द्वादश
आदित्यो सहित विश्वेदेवा उत्तर दिशा की ओर से आपकी रक्षा करें । आपकी रक्षा के लिए प्रोक्षण किये गये जल
को हम वेदी के बाहर की ओर स्थापित करते है ॥११ ॥
१७७. सिश््वासि स्वाहा सिशशडस्यादित्यवनिः स्वाहा सि&हासि ब्रह्मवनिः क्षत्रवनि स्वाहा
सिशडासि सुप्रजावनी रायस्पोषवनिःस्वाहा सिर हास्या वह देवान् यजमानाय स्वाहा
भूतेभ्यस्त्वा ॥१२॥
हे उत्तरवेदि ! आप सिंहनौ रूप है । सिंहनी रूप आपको यह आहुति समर्पित है । आप सिंहनी रूप रै ।
आप आदित्य को प्रसन्न करने वाली हैं यह आहुति आप को दी जा रही है । आप सिंहनी रूप है । आप ब्राह्मण
एवं क्षत्रियो को हर्षित करने वाली हैं इस रूप वाली आपको आहूति प्रदान की जाती है । आप सिंहनी रूप हैं ।
आप पुत्र पौत्र तथा स्वर्णादि धन-धान्य को देने वाली है । यह आहूति आपके लिए है । आप सिंहनी रूप हैं।
यजमान के उपकार के लिए देवताओं का आवाहन करने बाली हैं । प्राणिपात्र के कल्याण हेतु यह आहुति आपको
समर्पित करते हैं ॥ २॥
१७८. श्ुवोसि पृथिवीं द् ॐ ह ुवक्षिदस्यन्तरिक्षं द् & हाच्युतक्षिदसि दिवं द् £ हाग्ने:
पुरीषमसि ॥१३ ॥
हे मध्यम परिधि ! आप स्थिर है । अतः पृथ्वी को आप दृढ़ करें । हे दक्षिण परिधि ! आप अन्तरिक्ष में स्थिर
यज्ञ में निवास करने वाली है अतएव आप अन्तरिक्ष को पुष्ट करें । हे उत्तर परिधि ! आप च्युलोकरूप हैं, अतः
चुलोक को स्थिर करें । हे गुग्गुल आदि सुगन्धित द्रव्य समूह ! आप अग्नि को पूर्ण करने वाले हैं ॥१३ ॥
24-60: ७७ मनऽ उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपञ्चितः। वि होत्रा दधे
5 इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः स्वाहा ॥१४॥
महान् , सर्वज्ञ, वेदो का भली-भौँति अध्ययन करने वाले ऋत्विग्गण, सांसारिक विषयों से मन को हटाकर
यज्ञ कार्य की पूर्णता के विषय में विचार करने लगते हैं । सम्पूर्ण प्राणियों के साक्षी भूत, प्रेरणा देने वाले, सर्वदा
श्रेष्ठ स्तुतियों से प्रशंसित सवितादेवता को अनुकूल करने के लिए यह आहति प्रदान की जाती है ॥१४ ॥