१.४ यजुर्वेद संहिता
हे जल ˆ ! इन्ध्रदेव ने वृत्र ( विकारों ) को नष्ट करते समय आपकी मदद लो थी और आपने सहयोग दिया
था। अग्नि तथा सोम के प्रिय आपको, हम शुद्ध करते हैं । आप शुद्ध हों । (हे यज्ञ उपकरणों !) अशुद्धता के
कारण आप् ग्राहय नहीं हैं, अतः यज्ञीय कर्म तथा देवों कौ पूजा के लिए हम आपको पित्रे बनाते हैं ॥६३ ॥
[* जल 'रस' तत्व है । असुर वृत्तियों (सृष्ासुर का विनाल तभी हो सकता है, जय भ्रेष्ठ प्रवृत्तियों में रस आए। रस
क्तव के शोधन के बिना असुर वृत्तियाँ नष्ट नहीं होती । इसलिए रस रूप जल का सहयोग अनिवार्य है ॥|
१४.श्पास्यवधूत £ रक्षोवधूता ऽ अरातयो दित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्ु । अद्विरसि
वानस्पत्यो ग्रावासि पृथुबुध्नः प्रति त्वादित्यास्त्वग्वेत्तु ॥१४ ॥
यह कण्डिका कृष्णाजिन { आसन) और ओखाली से सम्बन्धित है । इसके द्वारा मृगचर्म ग्रहण करने एवं उस पर उलुखल
रखने की क्रिया सम्पन्न होती है ~
इस सुखकारक आसन (आधार) से राक्षस (दुष्ट) एवं अनुदार वृत्ति वाले हटाबे गये हैं । यह प्ृध्वौ का
आवरण है । यह पृथ्वी द्वारा स्वीकृत हो । आप वनस्पतियों से निर्मित नीव के पत्थर की तरह दृढ़ हों । पृथ्वी
का आवरण (आधार) आपको प्राप्त हो ॥१४ ॥
१५.अग्नेस्तनूरसि वाचो विसर्जनं देववीतये त्वा गृहणामि बृहद्य्रावासि वानस्पत्यः स ऽइदं
देवेभ्यो हविः शमीष्व सुशमि शमीष्व । हविष्कृदेहि हविष्कृदेहि ।१५ ॥
प्रस्तुत कण्डिका द्वारा ओखली ये हवि डालने, कूटने, मूसल धारण करने आदि क्रियाओं को सम्पन्न करने का विधान है-
(हविष्यान्र के प्रति कथन) आपका, वाणी (मंत्रों ) के साथ विसर्जित होने वाला शरीर अग्नि का बाह्य आवरण
है । (मूसल के प्रति) सुदृढ़ पत्थर के सपान वनस्पत्ियों से निर्मित, दैवी शक्तियों की कीर्ति बढ़ाने के उद्देश्य से हम
आपको ग्रहण करते हैं । अतः देव प्रयोजन के लिए इस हविष्यात्र को उत्तम ढंग से पित्रे बनाकर हमें प्रदान करें ।
हे हविष्यात्र को तैयार करने वाले (मूसल) ! आप पधार ॥१५ ॥
१६.कुक्कुटोसि मधुजिद्न5 इषमूर्जमावद त्वया वय ९ संघात ९ संघातं जेष्म वर्षवृद्धमसि
प्रति त्वा वर्षवृद्धं वेत्तु परापत ४ रक्षः परापूताऽ अरातयोपहेत . रक्षो वायुर्वो
विविनक्तु देवो वः सविता हिरण्यपाणिः प्रतिगृध्णात्वच्छिदरेण पाणिना ॥१६ ॥
यह कण्डिका शष्या (यज्ञ उपकरण) , शूर्प (यज्ञ उपकरण) एवं हदिष्यान्न को लक्ष्य करके कही गयी है । इसके द्वारा
हेविष्यात्र को कूटने-साफ करने की क्रिया का विधान है-
है शम्ये ! आप कुक्कुट (सदृश असुरों को खोजकर मारने वाले) और (देवताओं के प्रति मधुर बाणी
बोलनेवाले होने से) मधुजिड्ड है । आप अन्न एवं बल प्रदायक ध्वनि करे । आपके सहयोग से हम संघात (संघर्ष)
में पशुओं पर विजय प्राप्त करें । (हे शूर्प और हविष्यान्न !) आप वर्षा से (प्रतिवर्ष) बढ़ने वाले है । (शुर्प जिस
सरकण्डे की सींक से बनता है, वह तथा हविष्यात्र रूप बनस्पतियाँ वर्षा से बढ़ती हैं ।) वर्षा को बढ़ाने वाला
(यज्ञ) आप को स्वीकारे । राक्षसी एवं अनुदार तत्त्व हटा दिए गये हैं--नष्ट हो गये हैं, अब वायु आपको शुद्ध करे
और सविता देवता (जिसमें से गिर न सके-ऐसे) स्वर्णिम हाथों से आपको धारण करें ॥१६ ॥
[ऋषियों ने वृक्ष-वनस्पत्यादि के अंकुरण एवं विकास में वायु, जल तथा प्रकाश (सुर्य रश्मि) के सहयोग की यात बहुत
पहले ही जान ली थी, जिसे वनस्पति विज्ञानी फोटोसिन्थेसिस की क्रिया कहते हैं ||
१७. धृष्टिरस्यपाग्ने अग्निमामादं जहि निष्करव्याद ९ सेधा देवयजं वह । धुवमसि पृथिवीं
द् ह ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनि सजातवन्युपदधापि भ्रातृव्यस्य वधाय ॥१७ ॥
यह कण्डिका उपवेष ( अग्निधारण करते वाला विशेष काष्ट पात्र) एवं अपि के प्रति है । इसके साथ उपवेध-पांत्र धारण
करने एवं उससे गार्हपत्य अम्नि के अंगारो को अलग करने की क्रिया होती है--