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श्रीविष्णुपुराण
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अन्ये तु पुरुषव्याघ्र चेतसो ये व्यपाश्रयाः ।
अन्ुद्धास्ते समस्तास्तु देवाद्याः कर्मयोनयः ॥ ७७
मूर्तं भगवतो रूपं सर्वापाश्रयनिःस्पृहम् ।
एषा वै धारणा प्रोक्ता यच्चित्तं तत्र धार्यते ॥ ७८
यथ मूर्तं हरे रूपं यादृक्रिन्त्य॑ नराधिप ।
तच्छरूयतामनाधारा धारणा नोपपद्यते ॥ ७९
प्रसन्नवदनं चारूपद्यपत्नोपयेक्षणम् ।
सुकपोलं सुविस्तीर्णललाटफलकोग्ज्वलम् ॥ ८०
सपकर्णान्तविन्यस्त्चारुकुण्डलभूषणम् ।
कम्बुग्रीवं सुविस्तीर्णाश्रीवत्साङ्कितवक्षसम् ॥ ८१
बलिब्रिभड्डिना मध्रनाभिना ह्युदरेण च ।
प्रलम्बाष्टभुजं विष्णुमथवापि चतुर्भुजम् ॥ ८२
समस्थितोरुजङ्गं च सुस्थिताङ्प्रिवराम्बुजम् ।
चिन्तयेद्रह्यभूतं ते पीतनिर्पलवाससम् ॥ ८३
किरीटहारकेयूरकरकादिविभूषितम् ॥ ८४
शारईशब्डगदाखड्गचक्राक्षबलयान्वितम् ।
वरदाभयहस्तं च मुद्रिकारलत्रभूषितम् ॥ ८५
चिन्तयेत्तन्ययो योगी समाधायात्ममानसम् ।
तावश्लावददुढीभूता तत्रैव नृप धारणा ॥ ८६
तऋरजतस्तिष्ठतोऽन्यद्धा स्वच्छया कर्म कुर्वतः ।
नापयाति यद चित्तात्सद्धौ मन्येत तौ तदा ॥ ८७
ततः श्खगदाचक्रखाङ्गादिरहितं बुधः ।
चिन्तयेद्धगवद्रूपं प्रशान्त॑ साक्षसूत्रकम् ॥ ८८
सा यदा धारणा तद्भदवष्थानवती ततः ।
किरीटकेचूरमुखैरभूषणौ रहितं स्मरेत् ॥ ८९
तदेकावयवं देवं चेतसा हि पुनर्बुधः ।
कुर्यात्ततोऽवयविनि प्रणिधानपरो भवेत् ॥ ९०
आश्रय हैं ॥ ७६ ॥ हे पुरुषसिंह ! इसके अतिरिक्त मनके
आश्रयभूत जो अन्य देवता आदि कर्मयोनियाँ हैं, वे सब
अरुद्ध हैं ॥ ७७॥ भगवानका यह मूर्तरूप चित्तको अन्य
आल्म्बनोंसे नि स्पृह कर देता है। इस प्रकार चिका
भगवान स्थिर करना ही धारणा कहलाती है ॥ ७८ ॥
है चेद्र! धारणा विना किसी आधारके नहीं हो
सकती; इसलिये भगनानके जिस मूर्तरूपका जिस प्रकार
ध्यान करना चाहिये, चर सुनो ॥ ७९ ॥ जो प्रसन्नवदन
और कमलदलके समान सुन्दर नेत्रोंवाले हैं, सुन्दर कपो
और विज्ञाल भालसे अत्यन्त सुशोभित हैं तथा अपने
सुन्दर कानॉमें मनोहर कुण्डल पहने हुए हैं, जिनकी ग्रीवा
शद्गके समान और विशाल वक्षःस्थल श्रीवत्सचिहसे
सुशोभित है, जो तरज्ञाकार त्रिवरो तथा नोची नाभिवाले
उदरसे सुोभित हैं, जिनके लम्बी-लम्बी आठ अथवा
चार भुजाएँ हैं तथा जिनके जङ्घा एवं करु समानभावसे
स्थित हैं और मनोहर चरणारविन्द सुघरतासे विराजमान हैं
उन निर्मल पीताम्बरधारी ब्रह्मस्वरूप भगवान् किष्णुका
चिन्तन करें ॥ ८०--८३ ॥ हे राजन् ! किरीर, हार,
केयूर ओर कटक आदि आभृषणोंसे विभूषित, शार्डधनुष,
श्व, गदा, खङ्ग, चक्र तथा अक्षमालासे युक्त वरद और
अभययुक्त हाथथोंवाछे* [ तथा अंगुलियों धारण को
हुई ] रननयी मुद्रिकासे शोभायमान भगवानके दिव्य
रूपक योगीको अपना चित्त एकाय करके तन्मयभावते
तबतक चिन्तन करना चाहिये जबतक यह धारणा दृढ़ न
हो जाय ॥ ८४-- ८६ ॥ जब चल्ते-फिरते, उठते-बैठते
अथवा खेच्छानुकूल कोई और कर्म करते हुए भी ध्येय
मूर्ति अपने चित्तसे दूर न हो तो इसे सिद्ध हुई माननों
चाहिये ॥ ८७ ॥
इसके दृढ़ होनेपर बुद्धिमान् व्यक्ति चख, चक्र, गदा और
झारड़ आदिसे रहित भगवानके स्फटिकाक्षमात्त्र और
यज्ञोपवीतधारी शान्त स्वरूपक्त चिन्तन करे ॥ ८८ ॥ जब
यह धारणा भी पूर्ववत् स्थिर हो जाय तो भगवानके किरीट,
केयूरादि आभूषणोंसे रहित रूपका स्मरण करें॥ ८९ ॥
तदनन्तर विज्ञ पुरुष अपने चित्तगे एक (प्रधान) अवय्ब-
विशिष्ट भगवानका दयसे चिन्तन करें और फिर सम्पूर्ण
अबवयबॉंको छोड़कर केवल अवयनीका ध्यान को ॥ ९० ॥
## चतुर्भुज-मूर्तिके ध्यानमें चारों हाथोंमें क्रमशः रा, चक्र, गदा और फराक्मै भावना करे तथा अष्टरभूजरूपका ध्यान करते
समय छः हार्थेमि तो चार्ज आदि छः आयु्धोकी भावना करे तथा रोष दोमें पद्म और बाण अथवा सरद और अभय-मुद्राका चिन्तन करे ।