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सुखपूर्वक निवृत्त किये जाने योग्य), पराभियोगप्रसह

(शत्रुओंद्वारा छेडे गये युद्धादिके कण्टको दृढ़तापूर्वक

सहन करनेमें सपर्थ- सहसा आत्मसमर्पण न

निवारणके अमोघ उपायको तत्काल जान लेनेवाला),

परच्छिद्रान्ववेक्षी (गुप्तचर आदिके द्वारा शत्रुओंके

छिद्रोंके अन्वेषणे प्रयन्रशील ), संधिविग्रहतत्त्ववित्‌

(अपनी तथा शत्रुकौ अवस्थके बलाबल-भेदको

जानकर संधि -विग्रह आदि छहों गुणोंके प्रयोगके

ढंग और अवसरको ठीक-ठीक जाननेवाला),

गूढमन्त्रप्रचार (मन्त्रणा ओर उसके प्रयोगको सर्वधा

गुप्त रखनेबाला), देशकालविभागवित्‌ (किस

प्रकारकी सेना किस देश और किस कालमें

विजयिनी होगी--इत्यादि बातोंकों विभागपूर्वक

जाननेवाला), आदाता सम्यगर्धानाम्‌ (प्रजा आदिसे

न्यायपूर्वक धन लेनेवाला), विनियोक्ता (धनको

उचित एवं उत्तम कार्यम लगानेवाला), पात्रवित्‌

(सत्पात्रका ज्ञान रखनेवाला), क्रोध, लोभ, भय,

द्रोह, स्तम्भ (मान) ओर चपलता (चिना विचारे

कार्य कर बैठना) -इन दोषोंसे दूर रहनेवाला,

परोपताप (दूसरोंको पीड़ा देना), पैशुन्य (चुगली

करके मित्रोंमें परस्पर फूट डालना), मात्सर्य (डाह),

ईर्ष्या (दूसरोके उत्कर्थको न न सह सकना) और

अनृतः (असत्यभाषण)-इन दुर्गुणोको लाँघ

जानेवाला, वृद्धजनेकि उपदेशको मानकर चलनेवाला,

श्लक्ष्ण (मधुरभाषी), मधुरदर्शन (आकृतिसे सुन्दर

'एवं सौम्य दिखायी देनेवाला), गुणानुएागी ( गुणवानेकि

उपपादक गुण) बताये गये है । ६--१० ६ ॥

उत्तम कुलमें उत्पन, बाहर -भीतरसे शुद्ध,

शौर्य-सम्पन, आन्वीक्षिकी आदि विद्याओंको

करवाल), सर्वदषटप्रतिक्रिय (सब प्रकारके संकटोकि | जाननेवाले, स्वामिभक्त तथा दण्डनीतिका समुचित

प्रयोग जाननेवाले लोग राजाके सचिव (अमात्य)

होने चाहिये ॥ ११३ ॥

जिसे अन्यायसे हटाना कठिन न हो, जिसका

जन्म उसी जनपदमें हुआ हो, जो कुलीन (ब्राह्मण

आदि), सुशील, शारीरिक बलसे सम्पन्न, उत्तम

वक्ता, सभामें निर्भीक होकर बोलनेवाला, शास्त्ररूपी

नेजसे युक्त, उत्साहवान्‌ (उत्साहसम्बन्धी त्रिविध

गुण- शौर्य, अमर्षं एवं दक्षतासे सम्पन),

प्रतिपत्तिमान्‌ (प्रतिभाशाली, भय आदिके अवसरॉपर

उनका तत्काल प्रतिकार करनेवाला), स्तब्धता

(मान) और चपलतासे रहित, मैत्र (मित्रोकि अर्जन

एवं संग्रमे कुशल), शीत-उष्ण आदि क्लेशको

सहन कलेमे समर्थ, शुचि (उपधाद्वारा परीक्षासे

प्रमाणित हुई शुद्धिसे सम्पन्न), सत्य (झूठ न

बोलना), सत्त्व (व्यसन और अभ्युदये भी

निर्विकार रहना), धैर्य, स्थिरता, प्रभाव तथा आरोग्य

आदि गुणोंसे सम्पन्न, कृतशिल्प ( सम्पूर्ण कलाओकि

अभ्याससे सम्पन्न), दक्ष (शीप्रतापूर्वक

कार्यसम्पादनमें कुशल), प्रज्ञावान्‌ (बुद्धिमान्‌),

धारणान्वित (अविस्मरणश्ञील), दृढ़भक्ति (स्वामीके

प्रति अविचल अनुराग रखनेवाला) तथा किसीसे

वैर न रखनेवाला और दूसरोंद्वार किये गये विरोधको

शान्त कर देनेवाला पुरुष राजाका बुद्धिसचिव एवं

गुणोंपर रीझनेवाला) तथा मितभाषौ (नपी-तुली | कर्मसचिव होना चाहिये ॥ १२--१४ \॥ |

बात कहनेवाला) राजा श्रेष्ठ है। इस प्रकार यहाँ | स्मृति (अनेक वर्षोंकी बीती बातोंको भी न

राजाके आत्मसम्पत्ति- सम्बन्धी गुण (उसके स्वरूपके | भूलना), अर्थ- तत्परता (दुर्गादिकौ रक्षा एवं संधि

१. आधभिगामिक गुणोंमें " सत्य ' आ चुका है, यहाँ भी अनृत -त्याग कहकर जो पुवः उसका ग्रहण किया गया है, यह दोनो जगह

उसकी अङ्गता प्रदर्शित करनेके लिये है।

२. कौटिल्यने भी ऐसा ही कहा है -'

अमात्यात्‌ कुर्वीत।' (कीटि० अर्ध>० १।८।४)

३- कौरिल्यने भी ऐसा हो कहा है--' शौर्यमपर्षो दावं चोत्साहगुणा: ।"( कौटि० अर्ध० ६।९।९६)

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