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ॐअ १३

पञ्चम अंश

३४३

तेरहवाँ अध्याय

गोपोंद्वारा भगवानका प्रमाववर्णान तथा भगवान्‌का गोपियोंके साथ रासक्रीडा करना

श्रीपराक् उवाच

गते शक्रे तु गोपालाः कृष्णमङ्गिष्टकारिणम्‌ ।

ऊचुः प्रीत्या धृतं दृष्टा तेन गोवर्धनाचलप्‌ ॥ १

कयमस्मान्प्रहाभाग भगवन्पहतो भयात्‌ ।

गावश्च भवता त्राता गिरिधारणकर्मणा।॥ २

बालक्रीडेयमतुला गोपालत्वं जुगुप्सितम्‌

दिव्य च भवतः कर्म किमेतत्तात कथ्यताम्‌ ॥ ३

कालियो टमितस्तोये धेनुको विनिपातितः ।

धृतो गोवर्धनश्चायं शङ्कितानि मनासि न: ॥ ४

सत्यं सत्यं हरेः पादौ शपामोउमितविक्रम ।

यथावदरर्यमात्तरेक्य न त्वां मन्यामहे नरम्‌ ॥ ५

प्रीति: सस्त्रीकुमारस्य व्रजस्य त्वयि केशव ।

कर्म चेदमञ्ञक्यं यत्सपस्तैख्िदकतैरपि ॥ &

बालत्वं चातिवीर्यत्वं जन्म चास्पास्वदो धनम्‌ ।

चिन्त्यमानममेयात्मज्छड्डां कृष्ण प्रयच्छति ॥ ७

देवो वा दानवो वा त्वं यक्षो गन्धर्वं एव वा ।

किमस्माकं विचारेण बान्धवोऽसि नमोऽस्तुते ॥ ८

अपिर उवाच

क्षणं भूत्वा त्वसौ तूष्णीं किञ्चित्मणयकोपवान्‌ ।

इत्येवमुक्तस्तैगोपिः कृष्णोऽध्याह महामतिः ॥ ९

श्रीपाचानूवकाच

मत्सम्बन्धेन वो गोपा यदि त्वजा न जायते ।

इृतकराष्यो वाहं ततः किं वो विचारेण प्रयोजनम्‌ ।। ९०

यदि वोऽस्ति मयि प्रीति: लाष्योऽहं भवतां यदि ।

तदात्मबन्धुसदृशी बुद्धिर्व: क्रियतां मयि ॥ ११

श्रीपरादारजी खोले--इन्द्रके चले जानेपर

हत्विहारी श्रीकृष्णचन्द्रो बिना प्रवास हो गोवर्धन-

पर्वत धारण करते देख गोपगण उनसे. प्रीतिपूर्वक

बोले-- ॥ १॥ हे भगवन्‌ ¦ हे महाभाग ! आपने

गिरिराजकों धारण कर हमारी और गौऑंकी इस महान्‌

भयसे रक्षा की है ॥२॥ है तात ! कहाँ आपकी यह

अनुपम वाललीस्ग्, कहाँ निन्दित गोपजाति और कहाँ ये

दिव्य कर्म ? यह सब क्या है, कृपया हमें बतल्त्इये

॥ ३ ॥ आपने यमुनाजलमें काल्म्यिनागका दमन किया,

घेनुकासुरको मारा और फिर यह गोवर्धनपर्वत धारण

किया; आपके इन अद्भुत कर्मोसि हमारे चित्तमें बड़ी

शंका हो रही है ॥ ४ ॥ हे अमितविक्रम ! हम भगवान्‌

हरिके चरणोंकी शपथ करके आपसे सच -सच कहते हैं

कि आफ्के ऐसे बल-वीर्यकों देस्ककर हप आपको

मनुष्य नहीं पान सकते॥ ५॥ है केशव ! स्त्री और

ब्रास्त्कोंके सहित सभौ वजवासिर्योक्ती आपपर अत्यन्त

प्रीति है। आपका यह कर्म तो देवताओंके स्व्यि भो

दुष्कर है॥ ६॥ हे कृष्ण ! आपकी यह बाल्यावस्था,

विचित्र बल वीर्यं ओर हम-जैसे नीच. पुरुषों्सें जन्म

लेना--हे अमेयात्मन्‌ ! ये सब बातें विचार करनेपर

हमें शंकामें डाल देती हैं॥ ७ ॥ आप देवता हों, दानव

हों, यक्ष हों अथवा गन्धर्व हों; इन बातोंका विचार

करनेसे हमें क्या प्रयोजन है ? हमरे तो आप बन्धु ही

है, अतः आपको नमस्कार है ॥<८ ॥

श्रीपराकरजी खोले--गोपगणके ऐसा. कहनेपर

महामति कृष्णचन्द्र कु देरतक चुप रहे और फिर कुछ

प्रणयजन्य कोपपूर्यक इस प्रकार कहने लगे--- ॥ ९॥

श्रीभगवानले कहा--हे गोपगण ! यदि

आपस्थ्रेगोंको मेरे सम्बन्धसे किसी प्रकारकी छख्नान हो,

तो मैं आपल्मेगोंसे प्रशेसनीय हूँ इस ब्रातका क्चार

करनेकी भी क्या आवश्यकता है ? ॥ १० ॥ यदि मुझमें

आपको प्रीति है और यदि मैं आपकी प्रशोंसाका पात्र हूँ तो