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इसलिये स्मृतियोंमें उक्त धर्म बेदोक्त धर्मका

गुणार्थ, परिसंख्या, विशेषतः अनुवाद, विशेष

दृष्टार्थं अथवा फलार्थं है, यह राजर्षि मनुका

सिद्धान्त है ॥ ४--८३ ॥

निम्नलिखित अड्तालीस संस्कारोसे सम्पन्न

मनुष्य ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है --(१) गर्भाधान,

(२) पुंसवन, (३) सीमन्तोन्नवन, (४) जातकर्म,

(५) नामकरण, (६) अन्नप्राशन, (७) चूडाकर्म,

(८) उपनयन - संस्कार, (९-- १२) चार वेदत्रत

(वेदाध्ययन), (१३) स्नान ( समावर्तन), (१४)

सहधर्मिणी -संयोग (विवाह), (१५-१९)

पञ्चयज्ञ- देवयन्त, पितृयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, भूतयज्ञ

तथा ब्रह्मयज्ञ, (२०-२६) सात पाक-यज्ञ-

संस्था, (२७ -३४) अष्टका -अष्टकासहित तीन

पार्वण श्राद्ध, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री और

आश्चयुजौ, (३५--४१) सात हविर्यज्ञ-संस्था--

अग्न्याधेव, अग्निरत्र, दर्शं -पौर्णमास, चातुर्मास्य,

आग्रहायणैष्टि, निरूढपशुबन्ध एवं सौत्रामणि,

(४२-४८) सात सोमसंस्था --अग्निष्टोम,

अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, पोडशी, वाजपेय, अतिरात्र

और आप्तोर्याम। आठ आत्मगुण हैँ -दया, क्षमा

अनसूया, अनायास, माङ्गल्य, अकार्पण्य, अस्पृहा

तथा शौच। जो इन गुणोंसे युक्त होता है, वह

परमधाम (स्वर्ग) -को प्राप्त करता है ॥ ९--१७ ३ ॥

मार्गगमन, मैथुन, मल-मूत्रोत्सर्ग, दन्तधावन,

स्नान और भोजन --इन छः कार्योको करते समय

मौन धारण करना चाहिये । दान की हुई चस्तुका

पुनः दान, पृथक्याक, ` घृतके साथ जल पीना,

दूधके साथ जल पीना, रात्रिम जल पीना, दाँतसे

नख आदि काटना एवं बहुत गरम जल पीना-

इन सात बातोंका परित्याग कर देना चाहिये।

स्नानके पश्चात्‌ पुष्पचयन न करे; क्योकि वे पुष्प

देवताके चढ़ानेयोग्य नहीं माने गये है । यदि कोई

अन्यगोत्रीय असम्बन्धी पुरुष किसी मृतकका

अग्नि-संस्कार करता है तो उसे दस दिनतक

पिण्ड तथा उदक-दानका कार्य भी पूर्ण करना

चाहिये। जल, तृण, भस्म, द्वार एवं मार्ग--इनकों

बीचमें रखकर जानेसे पङ्किदोष नहीं पाना जाता।

भोजनके पूर्वं अनामिका जतु अङ्गष्ठके संयोगसे

पञ्चप्रार्णोको आहुतियाँ देनी ॥ १८--२२॥

इस पकार आदि आग्नेय महापुराणमें “व्णात्रमधर्म आदिका वर्णन” नामक

एक सौ छाछठवाँ अध्याय पृद्ध हुआ॥ १६६ ॥

+ ७००45...

एक सौ सड़सठवाँ अध्याय

ग्रहोंके अयुत-लक्ष-कोटि हवनोंका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ठ ! अब में शान्ति,

समृद्धि एवं विजय आदिकी प्राप्तिके निमित्त

ग्रहयज्ञका पुनः वर्णन करता हूँ। ग्रहयज्ञ

"अयुतहोमात्मक' “लक्षहोमात्मक' ओर

“कोटिहोमात्मक 'के भेदसे तीन प्रकारका होता

है । अग्निकुण्डसे ईशानकोणमें निर्मित वेदिकापर

मण्डल (अष्टदलपदम) बनाकर उसमें ग्रहोंका

आवाहन करे। उत्तर दिशामें गुरु, ईशानकोणमें

बुध, पूर्वदलमें शुक्र, आग्नेयमें चन्द्रमा, दक्षिणमें

भौम, मध्यभागमें सूर्य, पश्चिममें शनि, नैरत्यमें राहु

और वायव्यम केतुको अङ्कित करे। शिव, पार्वती,

कार्तिकेय, विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, यम, काल और

चित्रगुप्त-ये 'अधिदेवता' कहे गये हैं। अग्नि,

वरुण, भूमि, विष्णु, इन्द्र, शचीदेवी, प्रजापति,

सर्प और ब्रह्मा-ये क्रमश: ' प्रत्यधिदेवता' हैं।*

गणेश, दुर्गा, वायु, आकाश तथा अश्विनीकुमार -

* किष्णुधर्घोत्तरपुणणमें शिब आदिको ' प्रत्यधिदेवता' और अरूण आदिको “अधिदेखता' पाना एया है। उक्त पुगणमें अग्निके

स्थानपर अरुण ' अधिदेवता' माने गये हैं।

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