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अध्याय २९]

* गौरीकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग, दक्षके यज्ञमे रुद्र ओर विष्णुका संपर्थ +

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और पुलह उद्गाता। उस यज्ञम महान्‌ तपस्वौ | गूँजते हुए ऋत्विजोकि शब्द भी सुनायी पड़े। साथ

क्रतु प्रस्तोता बने। प्रचेतामुनि प्रतिहर्ताका स्थान

सुशोभित कर रहे थे। महर्षि वसिष्ठ उस यज्ञमें

सुब्रह्मण्य-पदपर अधिष्ठित थे। चारों सनत्कुमार

यज्ञके सभासद थे।

इस प्रकार ब्रह्माजीसे सभी लोकोंकी सृष्टि हुई

है । अतएव वे सभीके द्वारा यजन करने योग्य है ।

इसी कारण यज्ञके आराध्य ब्रह्माजी स्वयं उस

यज्ञे उपस्थित थे। पितृगण भी प्रत्यक्ष रूप धारण

करके वहाँ पधारे थे। उन लोगोंकी प्रसनतासे

जगतूमें प्रसनता छा जाती है । वहाँ अपना भाग

चाहनेवाले सभी देवता, आदित्य, वसुगण, विश्वेदेव,

पितर, गन्धर्व और मरुदगण-सबको निर्दिष्ट

यथोचित भाग प्राप्त हो गये। ठीक उसी समय वे

रुद्र, जो बहुत पहले ब्रह्माजीके कोपसे प्रकट हुए

थे और जिन्होनि अगाध जलमें मग्न होकर तप

आरम्भ कर दिया था-पुनः जलसे बाहर निकल

पड़े। उस समय उनका श्रीविग्रह ऐसा उद्दीप्त हो

रहा था, मानो हजारों सूर्य प्रकाशित हो उठे हों।

वे भगवान्‌ रुद्र सम्पूर्ण ज्ञानके निधान हैं। समस्त

देवता उनके अद्भभूत हैं। वे परम विशुद्ध प्रभु

तपोबलके प्रभावसे सारे सृष्टि-प्रपञ्ञको प्रत्यक्ष

देखनेकी सामर्थ्यसे युक्त थे।

नरश्रेष्ठ! तत्काल ही उनसे पाँच दिव्य सर्ग

उत्पन हुए। इसके अतिरिक्त चार भौम सर्गोंकी

भी उनसे उत्पत्ति हुई, जिनमें मरणधर्मा जीव भी

थे। राजन्‌! अब तुम इस रुद्र-सृष्टिका प्रसड्भ

सुनो। जब एकादश रुद्रोकि अधिपति भगवान्‌

महारुद्र दस हजार वर्षोतक तप करके उस अगाध

जलके ऊपर आये तो उन्होने देखा-वन-

उपवनोंसे युक्त सस्यश्यामला पृथ्वी परम रमणीय

प्रतीत हो रही है । उसपर मनुष्यों और पशुओंकी

भरमार हो रही है । उन्हें दक्षप्रजापतिके भवनमें

ही यज्ञशालामें याज्ञिक पुरुषोंके द्वारा उच्चस्वरसे

किया जाता हुआ वेदगान भी सुनायी पड़ा।

तत्पश्चात्‌ उन महान्‌ तेजस्वी एवं सर्वज्ञ परम प्रभु

रुद्रके मनमें अपार क्रोध उमड़ पड़ा । वे कहने

लगे-' अरे! ब्रह्माजीने सर्वप्रथम अपनी सम्पूर्ण

अन्तःशक्तिका प्रयोग करके मेरी सृष्टि की और

मुझसे कहा कि तुम प्रजाओंकी सृष्टि करो। फिर

बह सृष्टि-कार्य दूसरे किस व्यक्तिने सम्पन्न कर

दिया?' ऐसा कहकर परम प्रभु भगवान्‌ रुदर

क्रोधित होकर बड़े जोरसे गरज उठे। उस समय

उनके कानोंसे तीव्र ज्वालाएँ निकल पड़ीं। उन

ज्वालाओंसे भूत, वेताल, अग्निमय प्रेत एवं

पूतनां करोड़ोंकी संख्यामें प्रकट हो गयीं। वे

सभी अपने-अपने हाथोंमें अनेक प्रकारके आयुध

लिये हुए थे। जब उन भूतगणोंने भगवान्‌ रुद्रकी

ओर दृष्टि डाली तो स्वयं उन परमेश्वरने एक

अत्यन्त सुन्दर रथकी भी रचना कर ली। उस

रथे दो सुन्दर मृग अश्वोंके स्थानपर कल्पित हुए

थे। तीनों तत्त्व ही रथके तीन दण्डोंका काम कर

रहे थे। धर्मराज उस रथके अक्षदण्ड बने तथा

पवन उसकी घरघराहट थे। दिन-रात--ये दो उस

रथकी पताकाएँ थीं। धर्म और अधर्म उसके

ध्वजदण्ड थे। उस बेदविद्यामय रथपर सारधिका

कार्य स्वयं ब्रह्माजी कर रहे थे। गायत्री ही धनुष

हुई और प्रणवने धनुषकी डोरीका स्थान ग्रहण

किया। राजन्‌! उन देवेश्वरके लिये सातों स्वर

सात बाण बन गये थे। इस प्रकार युद्धसामग्री

एकत्रित करके परम प्रतापी रुद्र क्रोधयुक्त हो

दक्षका यज्ञ विध्वंस करनेके लिये चल पड़े। जब

भगवान्‌ शंकर वहाँ पहुँचे तो ऋत्विजोंके मन्त्र

विस्मृत हो गये। यज्ञके विपरीत इस अशुभ

लक्षणको देखकर उन सभी ऋत्विजोने कहा-

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