* अध्याय २५१
^ ग. ऋ ऋऋ ऋ ऋऋ ऋफऋक ऋक ४ ऋ ७ ७ ७ #ऋ ७ छू छ छछरूब्
सप्त व्यूह है, जिसका पूर्वोक्त क्रमसे शरीरमें न्यास
किया जाता है। अब यज्ञात्मक सप्तव्यूहका
परिचय दिया जाता है। सप्तयज्ञस्वरूप यज्ञपुरुष
परमात्मदेव श्रीहरि सम्पूर्ण शरीर एवं सिर,
ललाट, मुख, हृदय, गुह्य और चरणमें स्थित हैं,
अर्थात् उन अङ्गे उनका न्यास करना चाहिये।
वे यज्ञ इस प्रकार हैं -- अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी,
वाजपेय, अतिरात्र और आपोर्याम -ये छः यज्ञ
तथा सातवें यज्ञात्मा -इन सात रूपोंको ' यज्ञमय
सप्तव्यूह” कहा गया दै ॥ २१--२८ ६ ॥
बुद्धि, अहंकार, मन, शब्द्, स्पर्श, रूप, रस
और गन्ध-ये आठ तत्त्व अष्टव्यूहरूप हैं। इनमेंसे
बुद्धितत्वका हाथ और शरीरमें व्यापक-न्यास
करे। फिर उपर्युक्त आठों तत्त्वोंका क्रमशः
चरणोंके तलबों, मस्तक, ललाट, मुख, हदय,
नाभि, गुह्य देश और पैर--इन आठ अड्जॉमें
न्यास करना चाहिये । इन सबको “अष्टव्यूहात्मक
पुरुष" कहा गया है । जीव, बुद्धि, अहंकार, मन,
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-गुण --इनका
समुदाय “नवव्यूह' है। इनमेंसे जीवका दोनों
हाथोंके अँगूठोंमें न्यास करे और शेष आठ
तत्त्वोंका क्रमशः दाहिने हाथकी तर्जनीसे लेकर
बायें हाथकी तर्जनीतक आठ अंगुलियोंमें न्यास
करे। सम्पूर्ण देह, सिर, ललाट, मुख, हृदय,
नाभि, गृह्य, जानु ओर पाद-इन नौ स्थानोंमें
उपर्युक्त नौ तत्त्वोंका न्यास करके इनद्रका पूर्ववत्
व्यापक-न्यास किया जाय तो यही ' दशब्यूहात्मक
न्यास" हो जाता है ॥ २९--३३ ॥
दोनों अङ्गष्टमे, तलद्वये, तर्जनी आदि आठ
अँगुलियोंमें तथा सिर, ललाट, मुख, हदय, नाभि,
गुह्य (उपस्थ और गुदा), जानुद्रय और पादद्वय --
इन ग्यारह अद्गौमे ग्यारह इन्द्रियात्मक तत्त्वोंका
जो न्यास किया जाता है, उसे “एकादशव्यूह-
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न्यास ' कहा गया है । वे ग्यारह तत्त्व इस प्रकार
हैं -मन, श्रवण, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका,
वाक्, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ। मनका
व्यापक-न्यास करे। अज्लुष्ठ्यमें श्रवणेन्द्रियका
न्यास करके शेष त्वचा आदि आठ तत्त्वोंका
तर्जनी आदि आठ अँगुलियोंमें न्यास करना
चाहिये। शेष जो ग्यारहवाँ तत्त्व (उपस्थ) है,
उसका तलद्वयरमे न्यास करे। मस्तक, ललाट,
मुख, हृदय, नाभि, चरण, गुहया, ऊरुद्रय, जद्डभा,
गुल्फ और पैर --इन ग्यारह अज्जॉमें भी पूर्वोक्त
ग्यारह तत्त्वोंका क्रमशः न्यास करे। विष्णु,
मधुसुदन, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर, हषीकेश,
पद्मनाभ, दामोदर, केशव, नारायण, माधव और
गोविन्द - यह "द्वादशात्मक व्यूह" है। इनमेंसे
विष्णुका तो व्यापक-न्यास करे और शेष
भगवज्नामोंका अङ्गुष्ठ आदि दस अंगुलियों एवं
करतलमें न्यास करके, फिर पादतल, दक्षिण
पाद, दक्षिण जानु. दक्षिण करि, सिर, शिखा,
वक्ष, वाम करि, मुख, वाम जानु और वाम
पादादिमे भी न्यास करना चाहिये ॥ ३४-३९ ॥
यह द्वादशब्यृह हुआ। अब पञ्चविंश एवं
षट्विंश व्यूहका परिचय दिया जाता दै । पुरुष,
बुद्धि, अहंकार, मन, चित्त, शब्द, स्पर्श, रस,
रूप, गन्ध, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका,
वाक्, हाथ, पैर, गुदा, उपस्थ, भूमि, जल, तेज,
वायु ओर आकाश --ये पचीस तत्त्व हैं। इनमेंसे
पुरुषका सर्वाङ्गे व्यापक-न्यास करके, दसका
अङ्गुष्ठ आदिमे न्यास करे । शेषका करतल, सिर,
ललाट, मुख, हदय, नाभि, गुह्य, ऊरु, जानु, पैर,
उपस्थ, हदय और मूर्धामें क्रमश: न्यास करे।
इन्हें सर्वप्रथम परमपुरुष परमात्माको सम्मिलित
करके उनका पूर्ववत् व्यापक-न्यास कर दिया
जाय तो षड्विंश व्यूहका न्यास सम्पन्न हो जाता