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+ सावतीयसंहिता + ६५५

पभविष्यकाल्ये सहस्रो दारीर आनेवाले हैं, वे देरके लिये मिल जाते हैं और मिलकर फिर

सब आ-आक़र जब जीर्ण -कीरणं हो जाते है, बिछुड़ जाते हैं। उसी प्रकार प्राणियोका यह

तब पुरुष उन्हें छोड़ देता ई । कोई भी समागम भी स्ंयोग-चियोगसे युक्त है ।*

जीवात्मा किसी भी दारीर्मे अनन्त कालक ब्रह्माजीते केकर स्याखर प्राणियोतक सभी

गहनेका अवसर नहीं पाता । यहाँ स्त्रियों, पुत्रौ जोब पदु कहे गये हैं। उन सभी पशुओंके

और बन्धु-बान्धलोसे जो पित्वन होता हैं, वह लिये ही यह दृष्टान्त या दर्दानि-दगख कहा गया

पथिकको मारगपिं मिले हुए दूसरे पश्चिकोंके है।यह जीव पादोपिं बधत और सुख-दुःख

सपागपके ही समान है। जैसे महासागर भोगता है, इसल्थिये 'पशु” कहल्ाता है । यह

एक काष्ठ कहींसे और दूसरा काष्ट कहींसे ईश्वरकी लीर्काका साधन-भूत है, ऐसा ज्ञानी

बहता आता है, ये दोनों काष्ट कहीं श्रोड़ी महात्मा कहते है । (अध्याय ४-५)

्र

महेश्वरकी महत्ताका प्रतिपादन

वायुदेवता कहते हैं--महर्षियों इस पति या महेश्वर ही व्यक्ताव्यक्त जगत्का

बिश्चका निर्माण करनेवारूणा कोई पति है, जो. भरण-पोषण करते हैं। से ही जगत्‌कों

अनन्त रमणीय गुणोंका आश्रय कहा गया अन्धनसे छुड़ानेवाले हैं। भोक्ता, भोग्य और

है। वही पशुओंकों पाइसे मुक्त करनेबाला प्रेरक--ये तीन ही तत्त्व जाननेयोग्य हैं । विज्ञ

है। उसके बिना संसारको सृष्टि कैसे हो पुरुषोंके लिये इनसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु

सकती है; क्योंकि पशु अज्ञानी ओर पाश्च जाननेयोग्य नहीं है । सृष्टिक आरम्भे एक ही

अचेतन है। प्रधान परमाणु आदि जितने भी रुद्रदेख विद्यमान रहते हैं, दूसरा कोई नहीं

जड़ तत्त्व हैं, उन सबका कर्ता वह पति ही होता । थे ही इस जगत्की सृष्टि करके इसकी

है--यह तात स्वयं समझमें आ जाती है। रक्षा करते हैं और अन्तपे सवका संहार कर

किसी बुद्धिमान या चेतन कारणके चिना इन डालते हैं। उनके सब ओर नेत्र हैं, सच ओर

जड़ तत्त्वोंका निर्माण कैसे सम्भव है। पशु, मुख है, स ओर भुजाएँ हैं और सत्र ओर

पाश ओर पतिका जो वास्तवपे। पृथक- चरणा हैं। ये हीं सबसे पहले देवताओमें

पृथक्‌ स्वरूप है, उसे जानकर ही ब्रह्मवेत्ता ग्रह्माजीको उत्पन्न करते हैं। श्रुति कहती है

पुरूष योनिसे मुक्त होत्ता है। क्षर और कि 'रख्देव सबसे श्रेष्ठ सहान्‌ ऋषि हैं। य॑

अक्षर--ये दोनों एक-दूसरेसे संयुक्त होते हैं। इन महान्‌ अमृतस्वरूप अखिनाश्ी पुरुष

» यैवास्य भविता कश्िन्नासो भवति कस्पचित्‌। पथि संगम एवायं दपः पुत्रक्ध बखुचिः॥

यथा काठ च काष्ट च समेयातों पेद यौ । २१८५ च व्यपयातो तद्द्‌, भूतसमागपः ॥

{चिर प्‌ वा० से> ॥५ ऋऽ ९4. ५८०५९)