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पाँच भाग्ये तो वीधी होती है और अपने चारों
ओर वह दस भागका स्थान लिये रहती है।
उसके आठ दिशाओंमें आठ कमल होते हैं तथा
वीथीसहित एक ट्वार॒पद्म भी होता है। उसके
बाह्मभागमें पाँच पदोंकी वीथी होती है, जो लता
आदिसे विभूषित हुआ करती है। द्वारके कण्ठमें
कमल होता है। द्वारका ओष्ठ ओर कण्ठभाग
एक-एक पदका होता है। कपोल-भाग एक
'पदका बनाना चाहिये । तीन दिशाओपिं तीन द्वार
स्पष्ट होते हैं। कोणबन्ध तीन पट्टियों, दो पद तथा
वज़-चिहसे युक्त होता है। मध्यकमल शुक्लवर्णका
होता है तथा शेष दिशाओंके कमल पूर्वादिक्रमसे
पीत, रक्त, नील, पीत, शुक्ल, धूम्र, रक्त तथा
पीतवर्णके होते हैं। यह कमलचक्र मुक्तिदायक
है॥ १५--२२॥
पूर्वं आदि दिशाओंमें आठ कमलोंका तथा
शिव-विष्णु आदि देवताओंका यजन करे। विष्णु
आदिका पूजन प्रासादके मध्यवती कमलमें करके
पूर्वादि कमलोंमें इन्द्र आदि लोकपालोंकी पूजा
करे। इनकी बाह्मवीथीकी पूर्वादि दिशामें उन-उन
इन्द्र आदि देवताओंके बज़ आदि आयुधोंकी पूजा
करे। वहाँ विष्णु आदिकी पूजा करके साधक
अश्वमेधयज्ञके फलका भागी होता है। पवित्रारोपण
आदिमे महान् मण्डलकी रचना करे। आठ हाथ
लंबे क्षेत्रका छब्बीससे विवर्तन (विभाजन) करे।
मध्यवर्ती दो पदोंमें कमल-निर्माण करे। तदनन्तर
एक पदकी वीथी हो। तत्पश्चात् दिशाओं तथा
विदिशाओमिं आठ नीलकमलोका निर्माण करे।
मध्यवर्ती कमलके ही मानसे उसमें कुल तीस
पद्म निर्मित किये जायं । वे सब दलसंधिसे रहित
हों तथा नीलवर्णके ' इन्दीवर" संज्ञक कमल हों।
उसके पृष्ठभागमें एक पदक वीथी हो । उसके
ऊपर स्वस्तिकचिह् बने हों। तात्पर्य यह कि
वीथीके ऊपरी भाग या बाह्मभागमे दो-दो पदोंके
विभकू स्थानोंमें कुल आठ स्वस्तिक लिखे जायं ।
तदनन्तर पूर्ववत् बाह्मभागमे वीथिका रहे । द्वार,
कमल तथा उपकण्ठ सब कुछ रहने चाहिये ।
कोणका रंग लाल और वीथीका पीला होना
चाहिये। मण्डलके बीचका कमल नीलवर्णका
होगा। कार्तिकेय}! विचित्र रंगोंसे युक्त स्वस्तिक
आदि मण्डल सम्पूर्णं कामनाओंको देनेवाला
है॥ २३-२९ ३॥
" पञ्चाग्ज-मण्डल' पाँच हाथके श्षेत्रको सब
ओरसे दससे विभाजित करके बनाया जाता है।
इसमें दो पदोंका कमल, उसके बाह्मभागमें वीथी,
फिर पटिका, फिर चार दिशाओं चार कमल
होते है । इन चारोके बाद पृष्ठभागमें वीधी हो, जो
एक पद अथवा दो पदोंके स्थाने बनायी गयी
हो। कण्ठ और उपकण्ठसे युक्त द्वार हों और
द्वारके मध्यभागमें कमल हो। इस पश्चाब्ज-
मण्डल पूर्ववर्ती कमल श्वेत और पीतवर्णका
होता है। दक्षिणदिग्वर्ती कमल बैदूर्यमणिके रंगका,
पश्चिमवर्ती कमल कुन्दके समान श्वेतवर्णका तथा
उत्तरदिशाका कमल शङ्खके सदृश उज्वल होता
है । शेष सब विचित्र वर्णके होते हैँ ॥ ३०--३३॥
अब मैं दस हाथके मण्डलका वर्णन करता
हूँ, जो सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला है। उसको
विकार-संख्या (२४) द्वारा सब ओर विभक्त
करके चौकोर क्षेत्र बना ले। इसमें दो-दो पदोंका
द्वार होगा। पूर्वोक्त चक्रोंकी भाँति इसके भी
मध्यभागमें कमल होगा । अब मैं “विष्नध्वंस-
अक्र'का वर्णन करता हूँ। चार हाथका पुर
(चौकोर क्षेत्र) बनाकर उसके मध्यभागमें दो
हाथके घेरेमें वृत्त (गोलाकर चक्र) बनाये। एक
हाथकी वीथी होगी, जो सब ओरसे स्वस्तिक-
चिह्ोंद्ारा घिरी रहेगी। एक-एक हाथमे चारों
ओर द्वार बनेंगे। चारों दिशाओमें वृत्त होंगे, जिनमें
कमल अद्भित रहेंगे। इस प्रकार इस चक्रमें पाँच