॥अथ षोडशोऽध्यायः ॥
॥ प्रथमः खण्डः ॥
१५७३.अभि त्वा पूर्वपीतय इन्द्र स्तोमेभिरायवः ।
समीचीनास ऋभवः समस्वरनुदरा गृणन्त पूर्व्यम् ॥१॥
हे इन्द्रदेव ! सर्व प्रथम सोमपान के लिए उपासक मनुष्य आपकी वैदिक स्तोत्र द्वारा प्रार्थना करते हैं विवेक
दृष्टि से युक्त ऋभुगण एवं रुद्र (वृद्ध बरह्मचारी) जन आपकी ही स्तुति करते है ॥१ ॥
१५७४.अस्थेदिन्द्रो वावृधे वृष्ण्यं शवो मदे सुतस्य विष्णवि ।
अद्या तमस्य महिमानमायवोऽनु षटुवन्ति पूर्वथा ॥२ ॥
वे इन्द्र देवता सोम का सेवन करके अत्यधिक आनन्दित होकर यजमान के वीर्य और बल को बढ़ाते है;
अतएव स्तोतागण आज भी इन्द्रदेव की महिमा का वर्णन करते हैं ॥२ ॥
१५७५. प्र वामर्चनत्युक्थिनों नीथाविदो जरितारः ।
इन्द्राग्नी इष आ वृणे ॥३॥
हे इनदर ओर अग्निदेवो ! स्तोतागण आपकी प्रार्थना करते है, सामवेद-गायक आपका गुणगान करते हैं ।
(पोषक) अन्न प्राप्ति हेतु हम भी आपकी स्तुति करते हैं ॥३ ॥
१५७६. इन्द्राग्नी नवतिं पुरो दासपलीरधूनुतम्।
साकमेकेन कर्मणा ॥४॥
है इन्द्राग्ने आप रिपुओं के नब्बे (सैकड़ों) नगरों को एक बार के आक्रमण से, एक ही समय मे कम्पित
कर देते है ॥४॥
१५७७.इनद्रागनी अपसस्पर्युप प्र यन्ति धीतयः । ऋतस्य पथ्या३ अनु ॥५॥
हे इन्द्र और अग्ने ! होतादि ऋत्विग्गण यज्ञ के मार्ग से (सत्कर्म करते हुए) हमारे इस पवित्र यज्ञ में
उपस्थित होते हैं ॥५ ॥
१५७८.इन्दराग्नी तविषाणि वां सधस्थानि प्रयांसि च।
युवोरप्तूर्यं हितम् ॥६ ॥
हे इद्धाग्ने आपके पास बल और अन्न (पोषक पदार्थ) संयुक्तरूप से रहते है । आपका बल शुभ कर्मों की
ओर प्रेरित करने वाला है ॥६ ॥
१५७९.शग्ध्य्३ घु शचीपत इन्द्र विश्वाभिरूतिभिः।
भगं न हि त्वा यशसं वसुविदमनु शूर चरामसि ॥७॥