अभिषिक्त राजा का कृत्य वर्णन ] ` [ २४१.
रथी के विषय में भलीभाँति विजता रखता-हो । स्थिर दृष्टि वाला-
प्रियं बोलने वाला-णूर-कृतविद्य हो ।१६-२१।
अनाहार्य: रुचिदक्षश्चिकित्सतविदाम्बरः ।
सूपणास्त्रविगेषज्ञः सूदाध्यक्ष: प्रशस्यते ।२२
सूदणास्त्रविध्रानज्ञाः परभेद्या कुलोद्गताः ।
सवं महानसे धार्याः कृत्तकेशनखा नराः ।२३
समः शत्रौ च मित्रे च धर्मशास्त्रविणारद: 4
विप्रमुख्य: कुलीनश्च धर्माधिकरणो भवरेत् ।२४
कार्यस्तिथाविधास्तत्र द्विजमुख्यः सभासदः ।
सर्वेदेशाक्ष राभिज्ञ: सर्व शास्त्रविशा रद: ।२५
लेखक: कथितोराज: सर्वाधिकरणेषु वे ।
शीर्ष पितान् सुसम्पूर्णान् समश्र णिगतान् समान् ।२६
आन्तरावे लिखेद्यस्तु लेखक: स वरः स्मरतः ।
उपायवाक्यकूुणलः सवे शास्वरवि शारदः ।२७
वहवर्थवक्ता चात्पेन लेखकः स्यानृपोत्तम ! ।
पुरुषान्तरतत्वज्ञाः प्राजश्चाप्यलोलूपाः ।२८
नृपत्ति का सुपाध्यक्ष वही प्रशस्त होता है जो आहार्यं न हो-रुचि
दक्ष-चिकिन्सा के ज्ञाताओं में परम श्रेष्ठ सूपशास्त्र की विशेषताओं का
ज्ञाता होता है ।२२। सूद शास्त्र के विधान के ज्ञाता-परों. को भेदन के
योग्य अच्छे कूल से उद्गत ऐसे ही मनुष्य सब महानूस् में (रसोई में)
रखने चाहिए जिनके केण और नाखून कटे हुए हो ।२३।नृपकोा धर्मा
ध्रिकारी पुरुष विप्रों मं प्रमुख-कुलीन-धर्मणास्व का महान् विद्वान् ओर
शत्रु तथा मित्र में समान रहने बाला होना चाहिए । वहाँ पर राजा
की सभा. में ऐसे ही सदस्य होने चाहिए जो सभासद द्विजो में मुख्य,
हीं--समस्त देशीं की भाषाओं के अभिज्ञ हों तथा सम्पूर्ण शास्त्रों के
विशारद होवें । राजा के यहाँ वह लेखक परम श्रेष्ठ भी कहा गया है.