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# शरणं वज सर्वेशां सत्युजयमुमापतिम्‌ #

[ संक्षिप्त स्कन्‍्दपुराण

काकछरुद्र भगवान्‌ दावानलसे। आँधी-तूफानोंसे और समस्त

सापो मेरी रक्षा करें प्रदी विद्युत्‌ एवं स्वर्णके सदश

जिनकी कान्ति दै, विया, यर, अमय ( मुद्रा ) और कडार

जिनके कर्कमर्लोमिं सुशोमित ईै, जो चतु भुं और जिछोचन

हैं, वे 'ररपुरुष' भगवान्‌ पूर्व दिशामें निरन्तर मेरी रक्षा करे ।

जो कुडार, वेद, अङ्कुर, पाश, चूड, कपा) नमाढ़ा और

रुद्राक्षकी माव्मको धारण किये हुए दें। जो च्छलः वे

नीरूबचि» त्रिनेत्र “अघोर” भगवान्‌ दक्षिण दिश्यामें मेरी

रक्षा ररे । कुन्द, चन्द्रमा, शक्ल और स्फटेकके समान

जिनकी उज्ज्यल क्रान्ति ह, वेद्‌+ रद्गाक्ष-माछा, वर और अभय

(मुद्रा) से जो सुशोमित हैं बे महाप्रमाबशाली चतुरानन/

त्रिलोचन श्वद्योधितः भगवान्‌ पश्चिम दिशार्म मेरी रक्षा

करे । जिनके दार्पोमिं वर, अभय ( मुद्रा), रुद्राक्षमाल्य

और टोंकी विराजमान ३, कमछ-करिज्लल्कके सदश्र जिनका वर्ण

है वे चत॒र्मृश्व त्रिनेत्र वामदेवः भगवान्‌ उत्तर दिशामें मेरी

रक्षा करें | निनके करकमलों वेद्‌, अभव वर, अङ्कुश, ढोंकी।

पादा, कपाल, नगाड़ा, रुद्राक्षमाछा और शूल सुशोभित रै,

जो सित्युति ई वे परम प्रकाशस्य पश्चमुख “ईशान” भगवान्‌

मेरी ऊपरसे र्वा कर | मगवान्‌ “चअन्द्रमौक्िः मेरे सिरी;

ध्मालनेत्र! मेरे भालछी। “'मगनेभद्वारी! मेरे नेत्रोंकी,

(विश्वनाथ! मेरी नासिकाक्री। “शरुतिगीतड्रीर्ति' कार्नोक्री,

पश्नुख' मुखी) प्येदजिह्दा! जीमफी, गिरीशः गरेकी,

ध्लीलकण्ठ” दोनों हाथोंकी। “पर्मग्राहु! कन्धोंझी, दक्षयज्ञ-

विध्वंसी" वश्चःखलकीः 'गिरीन्धधन्याः पेटकी, “फामदेवके

नाकः मध्यदेशकी, पानेदजीके पिताः नामिकीः भूर्जटिः

कटिः 'कुपरेरमित्र! दोनों पिष्डलियोंकी, (जगदीश्वर दोनों

घुटनोंकी; 'पुद्नयकेतु” दोनों जोक और “ुरवन्धेचरणः

मेरे पैरोंकी सदैय रक्षा करें देवर, दिनके पहले प्रदरे

मेरी रक्षा करें । “वामदेष" मध्यके प्रशरमें, “यम्बकः तीसरे

प्रदर्म और थ्यूषभध्यज' दिनके अन्‍्तगाले प्रहरमें मेरी रक्षा

करें । "ाशिशेखरः राज्रिके आरम्ममें; भाज्ञाधरः अर्धराध्िमें,

'गौरीपतिः राजिके अन्तर्मे और “मृत्युझ्यः सर्वक्रालमें मेरी

रक्षा करें | “शझ्बुरः अन्तःस्थित भवस्यामं मेरी रक्षा करें ।

ष््याणु" गहिःस्पित रक्षा करें । “पश्ञपति! बीचर्मे रक्षा करं

और धसदादिव”ः खव ओर मेरी रक्षा करें । “्भुवनैकनाथ!

खड़े होनेके समय। “प्रमथनाथ” च्छते समय, “वेदान्तवेया

बैठे रते समय और “अविनाशी शिवः सोते समय मेरी रक्षा

करें । (नीलकण्ठः रास्तेमें मेरी रक्षा करें। ५त्रिपुरारीः

न्ख

शैलादि दुर्गोर्म और उदार शक्ति भ्मृगव्याभ' वनवासादि

महान प्रवार्छौमे मेरी रक्षा करें | जिनस्य परख क्रोध कस्पोंका

अन्त करनेमें अत्यस्त पदु है, जिनके प्रचण्ड अष्ास्यते

जद्माण्ड कॉप उठता दे, वे 'वीरमदजी' समुद्रके सहश भयानक

झज्ुसेनाके दुर्निवार महान्‌. मयते मेरी रक्षा करें । भगवान्‌

शद मप्र आतता ल्पते आक्रमण करनेवारलोकी हजारो,

दस नारयो, लाला और करोड़ों वैदो, घोड़ों। हाथियों और

रथॉसे युक्त अति भीषण सेकड़ों अक्षौद्विणी सेनाओज्म अपनी

घोर कुठार-धारसे छेदन करें । भगवान्‌ “पिपुरास्तक'कां

प्रलबामिफे समान ज्वाल्यओसे युक्त जलता हुआ त्िधूल मेरे

दस्युदलका विनाश कर दे और उनका पिनाक धनुष शार्दूल,

करे । ये जगदीश्वर मेरे बुरे खभ, बुरे शकुनः बुरी गति,

मनकी बुए भावनाः दुर्भिक्ष। दुर्व्यंसन। वुःखह अपयदा+

उत्पात) सन्तापः विषभय। दुष्ट प्रहेके दुःख तथा षम

रोगोंका नाश करें ।

“प्सम्पूर्ण तस्व जिनके स्वरूप हैं; जो सम्पूर्ण तवेमं

विचरण करनेवाले; समस्त लोकेकि एकम्बत्र कर्ता और सम्पूण

विश्वके एकमात्र भरण-पोषण करनेवाले हैं, जो अखिल विश्वके

एक ही संहारकारी। सब छोङ एकमात्र गुरु, समस्त सतार.

के एक ही साक्षी; सम्पूर्ण मेदकि गूह वत्व, सक्को षर

देनेबाले, समस्त पापों और पीड़ाओंफा नाश फरनेपाछे) सारे

संसारकों अभय देनेबाले, सब्र लोगोंफे एकमात्र कल्याणकारी;

चन्द्रमाफ़ा मुकुट धारण फरनेबाले, अपने सनातन प्रफाशसे

प्रकाशित नेमा, निर्युण, उपसारहित; निराकार; निराभास,

निरामयः निप्यप्ः निष्कलङ्कः निर्ट्दः निःखनः निर्गः गति-

धुत्प; नित्यरूप, नित्यमैभषमे सम्पन्न; अनुपम रेर्यते सुधोभिवः

आधारधून्य, नित्य, शुद्ध-बुद्ध, परिपूर्ण, रूद्षिदानन्दघन+

अद्वितीय तथा परम शान्त, प्रशराशमयः तेजस्थरूप ई, उन

भगवान्‌ सदाविवको नमस्कार दै । दे महारुद्र ! मारोद)

भद्रावतार, दुःलदावाब्निविदारण, माभस, काठभैरवः

क्यान्तमैरवः कपालमालाधारी ! है खट्‌वाञ्ग, सद्ग, ढाल,

पाद्यः अङ्गदाः डमरू, शूर, धनुष; अण, गदा; शक्ति;

भिन्दिपाल, तोमर, मुदा, मुद्वर, पष्टिश, परध, परिष

भशण्डि, शती और चक्र आदि आयुधोंके दवारा मयष्कर

हजार दार्थोबाले ! है मुखर्दश्राफपऊ, विष्ट अदृदास्य-

बिस्कारितव्रह्माण्डमण्डल, नगेन््रकुष्डल, नागेन्दवल्यः

नागेस्द्रचर्मचर, सृत्युज्ञय, भ्यम्यक, त्रिपुरान्तक, विरूपाश्च,

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