+ शरणं लज सर्वेदवं स॒त्युंजयमुमापतिम् #
[ संक्षिप्त स्कन्दपुराण
सरस्वती नदी, द्वारकाती्थं एवं गोचत्स आदि तीर्थोकी महिमा
सतजी वोले--अब मैं धमारण्यतीर्थके उत्तम
आहात्यकी दूसरी कया कहता हूँ। धर्मारष्यमें सत्यछोकसे
जित प्रफ़ार सरस्वतीजी छायी गदीं, वह प्रसंग सुनिये । एक
समय प्रमावकालीन सूं समान तेजस्वी तथा सब
शाम प्रीण भहामुनिरेविव मपि सार्कण्डेयजीको
भक्तिपूर्वकं प्रणाम करके सथ ऋषियोंने कहा-“मगवन् !
आपने ब्रह्माजीकी पुत्री जिस सरस्वती नदौकों उतारा टै,
यह दर्शनसे प्राणियोंके पापोंका नाश करनेग्राली और पुष्य
देनेयाली है, उसके माहात्म्पका वर्णन दीजिये |
मार्कण्डेयजी बोले--आ्राक्षणों ! मैंने शरण्यार्थियोंक़ो
शरण देनेवाली सरखती देवीको भाद्रपद मासके शङ्क
पकी पुष्पमषी द्वादशी लिथिकों धर्मारण्यके अन्तर्गत शारायती
तीर्थम उतारा था । द्वारावतीतीर्थ मुनियों और गन्धर्वो सेवित
है। उक्त तिथिको उस तीर्थम पिष्डटान आदि करना चाहिये।
उसमें पितरोंक़ो दिया हुआ अक्षय होता है और भादकर्ता मी
उसके पुष्पफलकों प्रात होता है। यह सह्त्यपूर्ण उपास्यान
पार्पोक्न नाशक एवं पुण्यदायक है । पवित्र यस्लुओर्मे
पिर और महापतर्न्नैका निवारण करनेवाष्म है ।
शरस्वतीजी जछ समस्त मन्नछोंके दिये मङ्गलकमरक और
परम पवित्र है| प्रमास तीर्थक्रे मध्यमें सरस्वतीडा जो पुण्व-
मय जल है, थद क्या ऊपर्क त्मका सुछभ दे १ सरस्वतीका
जल मनुष्योकी अक्षदत्वाफो भी दूर करता दै । सस्खवतीमें
सान और देकता-पितरों क्र तरच करके पश्चात् पिष्ड देनेवाले
मनुष्य फिर कमी मताका दूध पीनेयाकछे शिशु नहीं होते ।
जैसे कामधेनु गौएँ मनोवाभ्छित फछ देनेवाकी होती ४,
उसी प्रह्मार सरस्वती नदी भी स्वर्ग और मोक्षकी
एकमात्र हेतु है ।
व्यासजी कहते ईैं--मार्कण्डेयजीने सरस्वती देवीकों
हां खाकर वेकुण्ठका दरवाजा शो दिया है। जो एकी
आफाहुसे यहाँ शरीर-त्याग करते ह, ये उस फलो पाते हैं
और अन्तमं भगवान् विष्णुका सायुज्य प्रास कर छेते हैं।
अधिक कहनेते क्या लाभ; मनुष्योंकों शर्देब विष्णुलोक प्रास
करनेफी इच्छते ब्रारकाने ही रारीर-त्याग करना चाहिये।
दारका मृल्युको प्रास हुए मनुप्य खव पापोंसे छूटफर
भगवान् विष्णुके धाममें जाते हैं । उस तीर्थम जान करके
ओ मनुष्य भगवान् विप्णुका पूजन करता दै, षद सब वापोंसे मुक्त
हो विप्शुधामकों जाता है। यह व तीथोम उत्तम तीर्थ है;
जहाँ साक्षात् भीडरि मिवास करते और उस तीर्थम रहनेवाले
मनुप्यके सब पापोंकों इर छेते ई । द्वारकातीर्थ मोश्च चाहने-
बाड़े मनुप्योंकों मुक्ति देनेवाल्य, धनार्थो शनो धन देनेवाला
तथा आयु, सुख एवं सम्पूणं मनोवाञ्छित फड प्रदान करने-
चाषा है । जो मनुप्य वहाँ एकादशीमें उपवास करके भाद
करता है, वह नरकॉंसे ख्य पितरोका उद्धार कर देता है ।
यहाँ द्वारकाके समीप सार्ईण्डेयजीसे उपछक्षित एक
गोवल्स नामक तीर्थ दै, जो प््वीमे सर्वत्र विख्यात है । उख
तीर्थ जगत्यति उमाकान्त भगवान् शिव गायके भरे
रूपम अवतीर्णं हो स्वयम्भू छिन्लरूपसे विराज रहे हैं । पूर्च-
कामे बछाहक नामके एक दायुविजयी राजा थे, जो
मदान् बलवान् और मगवान् शिवके परम मक्त ये एक दिन जब
बे शिकार सरेदनेम स्मो ये, उनके किती दद सेनिकने
मूगोकि शरष्डमे एर गायके ग्रछड़ेकों स्थित देखकर राजसे
कहा--“द्पभेष्ठ ! मैंने सर्गोफ़े समुदायतें एक गायका
श्छ देखा दै, जो उन्हींमे दिला.मिटा है। उसकी मा
उसके श्वथ नहीं है |! राजान उस नौकस्ते कह्टा--“त मझ्षे
उस वेको दिखा |? तद उस पंदर सेयकने वनम जाकर
राजाकों बह वृद्धा दिलाया | उस सपय वैदल संनिकोंके
भयते मूर्गोका वह् श्चण्ड पीड फी साङीकी ओर भागा ॥
तव गायका यछा भी उसी ओर च्या । राजा उसे पकड़ने-
के छिये झाड़ीमें घुस गये और ्यो-दी उखे पकड़ने छगे
स्थॉ-ही घह उज्ज्वल दिवस्टड्धिके रूपमें परिणत हो गया ।
यह देखकर राजाको बड़ा विस्मय हुआ। ये सोचने छगे--प्यह
कया याते है।' तवत उस शिवलिद्ञके मध्य भागमें उन्होंने
गायके बटदेष्तो स्थित देखा । अब उनके मनमें यह निश्चय
हो गया कि “अवद्य ही गायके वेके रूपमे साक्षात्
भगवान् मह्देश्वर विराजमान हैं । तदनन्तर उन्हें ले आनेफे
लिये उद्यत हो सजाने उस्र शिक्किज्ञको उस्ाइनेका प्रयक्ष
किया, किंतु वे उस दैवलिङ्गको किसी प्रकार उठा न
सके । तव राजाके श्वाय सब देवताओंने मगयान् शङ्कसे
प्रार्थना की ।
देवता बोले--भगवत् ! सर्वदेवेस्वर ! प्रभो !
आपको ख्व ल्येकोंका हित-साथन करनेकी इच्छासे शुक्ल
छिङ्गरूपसे स्थित होना चाहि।