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तो विद्वान्‌ पुरुष भी मोहित हो जाते दँ । उसके रहते भला,

अपने वास्तविक स्वरूपकी ठीक -ठीकं कौन जान सकता

है? अतः उस लक्ष्मीको छीनकर महान्‌ उपकार

करनेवाले, समस्त जगत्‌के महान्‌ ईश्वर, सबके हदयमें

विराजमान और सबके परम साक्षी श्रीनारायणदेवको मैं

नमस्कार करता हूँ॥ १७॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--परीक्षित्‌ ! प्रह्मादजी

अञ्जलि बाँधकर खड़े थे। उनके सामने ही भगवान्‌

बरह्माजीने वामनभगवानूसे कुछ कहना चाहा ॥ १८ ॥

परन्तु इतनेमे ही राजा बलिकी परम साध्वी पत्नी

विन्ध्यावलीने अपने पतिको बैंधा देखकर भयभीत हो

भगवानके चरणों प्रणाम किया और हाथ जोड़, मुँह

नीचा कर वह भगवानसे बोलो ॥ १९ ॥

विन्ध्यावलीने कडा-- प्रभो! आपने अपनी

क्रीडाके लिये ही इस सम्पूर्ण जगत्‌की रचना की है । जो

लोग कुबुद्धि हैं, वे ही अपनेको इसका स्वामी मानते हैं।

जब आप ही इसके कर्ता, भर्ता और संहर्ता हैं, तब

आपकी मायासे मोहित होकर अपनेको झूठमूठ कर्ता

माननेवाले निर्लज आपको समर्पण क्या करेंगे 2 ॥ २० ॥

ब्रह्माजीने कहा--समस्त प्राणियोकि जीवनदाता,

उनके स्वामी और जगत्स्वरूप देवाधिदेव प्रभो ! अब

आप इसे छोड़ दीजिये । आपने इसका सर्वस्व ले लिया

है, अतः अब यह दण्डका पात्र नहीं है ॥ २१॥ इसने

अपनी सारी भूमि और पुण्यकर्मोंसे उपार्जित स्वर्ग आदि

लोक, अपना सर्वस्व तथा आत्मातक आपको समर्पित कर

दिया है। एवं ऐसा करते समय इसकी बुद्धि स्थिर रही है,

यह घैर्यसे च्युत नहीं हुआ है ॥ २२ ॥ प्रभो ! जो मनुष्य

सच्चे हृदयसे कृपणता छोड़कर आपके चरणोभिं जलका

अर्घ्य देता है और केवल दूर्वादलसे भी आपकी सच्ची

पूजा करता है, उसे भी उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है। फिर

बलिने तो बड़ी प्रसन्नतासे धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको

त्रिलोकीका दान कर दिया है। तब यह दुःखका भागी कैसे

हो सकता है ? ॥ २३ ॥

श्रीभगवानने कहा--ब्रह्माजी ! मैं जिसपर कृपा

करता हूँ, उसका धन छीन लिया करता हूँ। क्योंकि जब

मनुष्य घनके मदसे मतवाला हो जाता है, तब मेरा और

लोगॉका तिरस्कार करने लगता है॥ २४ ॥ यह जीव

* भ्रीमद्धागवत +

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अपने कर्मोके कारण विवश होकर अनेक योनियोमें

भटकता रहता है, जब कभी मेरी बड़ी कृपासे मनुष्यका

शरीर प्राप्त करता है॥ २५॥ मनुष्ययोनिमें जन्म लेकर

यदि कुलीनता, कर्म, अवस्था, रूप, विद्या, शर्य और

घन आदिके कारण घर्मड न हो जाय तो समझना चाहिये

कि मेरी बड़ी ही कृपा है॥२६॥ कुलीनता आदि

बहुत-से ऐसे कारण हैं, जो अभिमान और जडता आदि

उत्पन्न करके मनुष्यको कल्याणके समस्त साधनोंसे वञ्चित

कर देते हैं; परन्तु जो मेरे शरणागत होते है, वे इनसे

मोहित नहीं होते ॥ २७॥ यह बलि दानव ओर दैत्य दोनों

ही वंशोंमें अग्रगण्य और उनकी कीर्ति बढ़ानेवाला है ।

इसने उस मायापर विजय प्राप्त कर ली है, जिसे जीतना

अत्यन्त कठिन है। तुम देख ही रहे हो, इतना दुःख

भोगनेपर भी यह मोहित नहीं हुआ ॥ २८॥ इसका घन

छीन लिया, राजपदसे अलग कर दिया, तरह-तरहके

आक्षेप किये, शत्रुओने बाँध लिया, भाई वन्धु छोड़कर

चले गये, इतनी यातनाएँ, भोगनी पड़ीं--यहाँतक कि

गुरुदेबने भी इसको डाँटा-फटकारा और शापतक दे

दिया। परन्तु इस दृढ़वतीने अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोडी |

मैंने इससे छलभरी बातें कीं, मनमें छल रखकर धर्मका

उपदेश किया; परन्तु इस सत्यवादीने अपना धर्म न

छोड़ा ॥ २९-३० ॥ अतः मैंने इसे बह स्थान दिया है, जो

बड़े-बड़े देवताओंको भी बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होता है।

सावर्णि मवन्तएमे यह मेरा परम भक्त इन्द्र होगा ॥ ३१॥

तबतक यह विश्वकमकि बनाये हुए सुतल लोकमें रहे ।

वहाँ रहनेवाले लोग मेरौ कृपादृष्टिका अनुभव करते हैं।

इसलिये उन्हें शारीरिक अथवा मानसिक रोग, थकावर,

तनद्रा, बाहरी या भीतरी शत्रुओंसि पराजय और किसी

प्रकारके विप्नॉका सामना नहीं करना पड़ता ॥ ३२ ॥

[ बलिको सम्बोधित कर ] महाराज इन्द्रसेन ! तुम्हारा

कल्याण हो। अब तुम अपने भाई-बन्धुओंके साथ

उस सुतल लोकमें जाओ, जिसे स्वर्गके देवता भी

चाहते रहते हैं॥३३॥ बड़े-बड़े लोकपाल भी

अब तुम्हें पराजित नहीं कर सकेंगे, दूसरोंकी तो

बात ही क्या है! जो दैत्य तुम्हारी आज्ञाका उल्लब्डन

करेगे, मेरा चक्र उनके दुकड़े-दुकड़े कर देगा ॥ ३४ ॥

मैं तुम्हारी, तुम्हरे अनुचरोकी और भोगसामग्रीकी भी

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