वैष्णवलण्ड-उल्कछखण्ड ] + देवताभों तथा ब्रह्माजीके द्वारा भगवद़िग्रदहोंका स्तवन #
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अम झरीर ! इंश | इस अतार संसारमेँ मटकते रहनेके
फारण मैं अमसे व्याकुछ हूँ । भला आपको केसे जायें ! देव !
मैंने अपने कर्मोंद्कारा सुख भोगनेके छिये जिन विषय-मोगोंकां
संग्रह किय।, वे ही परिणाम मेरे लिये दु:श्व रूप रो गये । अतः मेरे
खमान दुखी दूसरा कोई नहीं है। प्रभो ! यदि यने ष्टे कमी मनसे
मी आपडी उपासना की होती तो दुःख भोगनेके लिये कर वार
नाना प्रकारे जगम मुझे क्यों प्रास होते ? मुररे ! क्या आपके
चरभारविन्दो से दूर रइनेका ही यह फल नहीं है ! सम्पूर्ण एथ्वीके
घनसे भरा हुआ मेरा खजाना, सेना, मनके अनुकूल सैकड़ों
और निष्कष्टक राज्य यह सय कुछ आपके तत्वशानसे
श्प पशुके तुस्य मुझ अधघमके लिये २हा भारी भार हो रदा
है। इसमें सदा इष दी ग्रात हुआ करता है। दौनोंपर दया
करनेवाले प्रभो ! आपके स्मरण करनेभाश्रसे ही जीवकी मुक्ति
होती है । इस संसःरमें आपके लिया मेरा कोई कक््धु नहीं है।
मेरी बुद्धि आपके चरणारबिन्दोंतेकमी अलग नो । आप
सशिदानन्दमग्र परिपूर्ण सिन्धु हैं | जो ९१ जन्मो का भाग्योदय
होनेपर आपको प्य गये हैं वे क्या कभी छेश मात्र सुख और अनन्त
दुःखोंसे भरे हुए जिपय-भोगहूपी इन्द जाली ओर आँख
उठाकर देखते हैं? टा तो जिसमें छेशमात् खुख और
अनस्त दुःखोंकी खानरूप सैंकड़ों प्रस्यियों हैं; ऐसे कमोंक।
अद्ूट बन्धन और क्ट अनन्त, अनादि, एक एषं आनन्दप्रद
आपके पवित्र चरणारविन्द › सबपर स्व भावतः कृपा कर नेयाड़े
यभो ! मूहभूत आप परमेश्वरकों न पाकर वच्छ सर्वके भये बहुत
भटकनेवाले क्लेशके ही माजनरूप मुझ अत्यन्त दीनडी रक्षा
कौजिये। सम्पूर्ण विश्वके एकमाप्न वन्दनीय विष्णुदेय !
येदान्तवेद्य | अव्यब ! विश्वनाथ ! आप ही खमस्त पाप
राशियोंका नाश करनेगे पर्थं हैं। तवानेन श्रेश इतमद्र !
आपका पिप्नह सदसो स्ेसि आदत है । आप ईश्वर हैं, मैं
आपकी दारणमें आपा हूँ । संतारतों आभय देनेबाडी तथा
सम्पूर्ण देवताओंफों उत्पन्न करनेबांडी मङ्गलमयी सुभद्राके
दोनों चरणोको पणम करता हूँ । दे नाप ! यह अह्माण्डोंका
समूह जिसकी किरणोंके समुदायसे रचा गया टै और जो
देस््योंकी सेनाका दार करनेवा ला टै, उस सुदर्शन चक्रे रूपमें
आड मैं प्रणाम करता हूँ ।”
इस प्रकार स्थति करके भरे राजा इन्द्रयूग्नने मंगवानको
साशाज्ञ प्रणाम किया ओर कह्टा--“अनायोंके बन्धु जगश्नाप !
संखार-्समुद्रमें वे हुए मुश्न दीन तथा दुःख-शोफसे ध्याकुछ
मनुध्यका आप कृपापूबंक उद्धार करें |)
तरपश्चास् नारदजीने कहा-- भपरर भत्रसागरसे पार
उतारनेमें दत्पर भगवान् नारापण ! आपकी जय हो, जय हो ।
शनक, नन्दन और सनातन आदि श्रेष्ठ योगी आपके दिव्य
तत्वका चिन्तन करते रहते हैं। भाप सरलोइस्वरूप। सब
लोगो मुख देनेपाले, सम्पूण परिश्वके उपकारक तथा समस्त
जगतूके बन्दनीय ई | कोटि-इो दि ब्रक्मा; सद्र) इन्द्र, मस्द्रण+
अखिनौकुमार, साध्य तथा शिद्धगण आपके लौला"“पिल्ाससे
उत्पन्न हैं। सम्पूर्ण देवत। और दानय आपके चरणो्मे प्रणाम
ऋरते हैं। विभुवरगुगें ! आप डिसीके मी पूर्णतया जाननेमें
नहीं आते | आपको नमस्कार है, नमस्कार दै।
तदनन्तर अन्य.न्य राजा; ददि पारदत विद्धान्, भोजिय
धुनि, द्वः क्षत्रिय तथा विद्वान वैश्य जाति स्तोर्थोनि भी
बेदिरु वू, श्लो, पौराणिक र्दुतियो और स्वरच्षित
कविताओं, जैसे कना उसी प्रकार, अरठुमद्र और सुमद्वाके
साथ कमरनयन भगवान् भीहष्णङ सवने ढ्िया।
इसके दाद् राजाने पुरोद्टितज्जीसे भगवान् वाशुदेवडी पू जाके
डिये शाम संग्रद छऋरनेकों कहा | फिर नारद् जौ के उपदे शते
म्ययंराजाने ही विधि एवं मन्भोचारणके साथ क्रमशः उन श्व
बिग्नदोका पूजन भिया । दादशाक्षर ( ॐ नमो भगवते
वोधुदेष.प ) मन्ते ब्रदभद्रजीकी पूछा छी | दधी क्रकेदारा
उपाक्षया करके भुवजौने परम उत्तम स्थान प्रास किया टै।
पुरुफ्यूक्तसे राजाने प्थाप्नक्ति भगवान् नार।यजडी पूज ही ।
देवीसृक्तसे मुभद्राका और सुदर्शन सम्पन्धिनी ऋचासे सुद्न
झक्रका पूजन स्यि | इस प्रकार अपने बेमबके अनुकार
भक्तिपूर्यक उन कवक) पूजा करके भगवश्यीतिके लिये उन्होंने
शे ब्राक्षणोंड़ों दान दिया। इसके खाद राजाने शुभ समय
एवं धमे नक्षभमे नारद आदि भै ग्राह्मणोफी पूजा फरके
स्वष्तिवाचन कराया और जगज्ञाथ नीका स्मरण करते हुए
वास्तुपूजनपूर्वक शिस्यौका भी पूजन किया | भगवाम् विष्णुके
उस काप्रमय अयसारकों देखकर ङृतारथ एवं पापरदित हुए
राजाओंछो इल्द्रय॒ुम्नने बढ़े आदरके स|थ भिदा किया |
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देवताओं तथा ब्रह्माजोके द्वारा भगवद्विप्र्ञेका स्तवन और उनकी स्थापना
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जेभिनिजी कते हैं--तदनस्तर राजा इस्द्रयुस्नने हो गया कि बह नीचेसे दिखायी नहीं पढ़ता था। उस समंय
शिल्पशास्में प्रयोग 5ब क/रीगपरोंकों मन्डिरके निर्माणकर्यम्म
नियुक्त किया। थोड़े दी समयमें मन्दिर बनकर इतना ऊँचा
भारतबर्णमें जितने लम्कालीन राना घ, ये सभी राजा
इन्द्रयुक्षके उस कार्यम संदग्न थे। वह मन्दिर ऊँशाईमें