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# शरण बज सर्वेशां सृत्युजयमुमापतिम्‌ #

[ संक्षिप्त स्कन्व पुराण

गये हैं। उनके पुनः प्रकाशर्में आनेपर आपलोर्गोका भी

कस्याण होगा । इसीलिये मेरा सारा प्रयश्च है।! राजाके

१5 प्रहार सूचित करनेपर इन्द्रादि देवताओंने शषा--

“ुन्द्रयुम्न ! तुम सचमुच मशः्मा हो | तुमने इस प्रथ्वीपर

सस्यत्रतका पालन किया दै । हमने पहलेसे ही तुम्हारे भविष्य

कार्यकमकों जान लिया है । तुम्द्वारा यह कार्य तीनों छोकोंकों

पवि करनेवाश्य है। हम इसमें दुखोरे सयक होंगे।

वम भक्तवत्सछ भगवान्‌ विष्णुका वर्तं अश्वमेष यशोदाया

सुखपूर्वक पूजन करो |?

तदनन्तर राजाने यजशके आरम्मके लिये भगवानका

पूजन किया । धगवान्‌ विध्युशो समाभवनर्मे इश्देयके स्वान

पर बिटाकर राजा खानी पएव्रीके साधं निश्चित छानकी

प्रतीक्षा करने छगे । स्वस्तिवाचन हो आनेपर पुष्याहवाचन और

आस्युदयिक धाद सम्सक्ष किया | उसके भाद्‌ श्व सामग्री

छेकर राजाने ऋत्यिओंका यरण शिया । परण हो जानेपर

उन्होंने सपत्रीक राजाकों यरुकी दीक्षा दी । वेदीका ठंस्कार

करके उसपर भ्रज्यद्षित आइवनौय अश्लिकों स्थापना की

गयी । ग्रह अग्नि साझ्षात्‌ भगवान्‌ विष्णुफा तेज है। फिर

प्रौक्षण और अभिमस्त्रण करके उचम लक्षो वाके अश्वरों

छोड़ा गया । यही दीक्षा छिये हुए राजा मौन होकर मूग-

चर्मपर बेठे | जदतक महायरशका कार्य चछता रहा, तक्ष्तक

सब मनुष्योंके लिये वहाँ छः प्रकारके अन्न-पान आदि चतुर

रसोशयोंद्ाारा तैयार किये जाते थे। उस यश्य प्रतिदिन

झोगोके सम्मान और आदम वृद्धि होती थी। खाथ ही

नित्य नवे-नये भोज्यपदार्प एकन्सेएछ बदकर प्रश्तुत

किये जाते पे । वां सर्वत्र प्रय करके रोर्गोका आदर-

सम्मान किया जाता और आग्रहपूर्वक भोजने कराया जाता

शा | वहाँ किसीको याचना नहीं करनी पढ़ती पी | कोई

विमुख नहीं हौटठा था | महाराजके मठ एप मनुष्योके

डिये अपने परके समान हो गये ये | भगयान्‌ विष्णुकी

अखन्नताके लिये किये जानेवाले उस यशर्मे यशानुप्रानमें

कुशकू तथा सदाचारविभूषित बिद्वान्‌ कार्य करते थे।

अग्ग्याध/नसे केकर अवभ्य-प्रचारतक सद कार्य कमः

और विधिके अनुसार सम्पन्न हुए। कोई भी मन्त्र कभी

श्वर और यर्णते शेन नहीं होने पाया | विधिके विधायक

महर्षि दी शरो यश-करमके अचिष्ठाता ये; अतः कर्ममें कहीं

कोई प्ररि नहीं होने पाती थी। वहाँ सर्पि याज्यल्थय

आदि शनि, जो गुण-दोपरूा विभाग करनेवाले हैं, यशके

दिव्य सदस्य, यज्ञके साक्षी और यथक करानेवाले थे ।

उरी ऋत्विजेंके स्प दरण कराया गया था। यश्म

सम्मिलित हुए युनिल्मेग परस्पर कथा-वरातके प्रसङ्ग

वेदिक वाकोवाभ्य, सू तथा गुह्य उपनिषद्की चर्चा करते

ये | सब पार्पोका नादा करनेवाले मगयध्यरित्रोकी कथा

बहाँ समामे दुआ करती थी! राजा इन्द्रयुननके क्म षव

देवता प्रत्यक्ष होऋर विष्य प्रहण करते ये । बद यज्ञ तीनों

लोको प्रसन्न करनेबालां था ।

इक प्रकार क्रमाः विधिपूर्यक चटनेवाल। वह भश्वमेध-

यश नौ सौ निन्‍्यानवेकी संरूपासक पहुँच गया। जब अन्तिम

यज्ञ होने खगा, तब राजा इन्द्रुम्न प्रतिदिन दिम्याबस्थाको

प्राप्त होने ले । सुस्था ( खोमरस निकालनेके दिन ) से

छात दिनके बाद ओ राधि आयी, उसके चौथे परमे राजा

इन्र यने अधिनाशी मतवान्‌ विष्णुका ध्यान किया। उस

ध्यानमें उन्होंने स्फटिकमणिमय स्तेतद्वीपको प्रत्यक्ष हुआ-सा

देखा । उसके चारों ओर धीरखमृद्र दरा रहा था । उस श्वेत

द्वीपके मध्यभागर्म दिव्य मणियोंको बना हुआ एक

उत्तम मण्डप दिखायी दिया | उसके भीतर प्रकाशमान

रज़सिंहासन सुशोमित था-। उस रक्रतिं्ासनपर मध्यमागर्म

शब्ज-चक-गदाधारी भगवान्‌ विष्णुक्ा दर्शन हुआ।

उनके भीअन्ञोंकी कान्ति नीलमेघके ख्मान दयाम

पी। वै वनमात्यसे विभूषत थे । उनके दादिने भागमें

हिमालयके सदृश गौर तथा कोटि चस्द्रमाओंके समान

कार्तिरानू धरणीधर अनन्त विराजमन ये, ओ फ्रमरूपी

मुकुरका पिस्तार करके सुन्दर ख्रके आकारै प्रित

हो गये थे | उनका स्वरूप कड़ा ही मनोहर था। उनके

कानोंमे दो रजमेय कुण्डल सिलमिव्छ रहे थे। शरौर-

पर सुन्दर नीर वस्त्र शोमायमांन थ! | भगवानके धाम भागने

शुभ लक्षजोंते सम्पन्न भगवती लशमी विराजमान थीं | उनके

हाथो इए और अभपकी मुद्रा तथा रूमछ सुशोमित थे |

उनके शरीरकी कन्ति कुक्ुमके समान थी और नेष षदे

न्द्र ये | वे कमऊके आषनपर ब्रेठी हुई थीं। भगवानके

आगे ब्रह्माजी हाथ जोड़े खड़े थे भौरिके वाम माग्ने

नाना मणिमय मुदर्शनचक्र स्पित या | सनकादि मुनीश्वर उन

अगद भगवान्‌ विष्णुफी स्तुति कर रहे ये। ध्यानमें

भगरानका इस प्रकार दर्शन पाकर राजा इन्द्रयम्नकों बढ़ा

शं हुआ । वे गद्रद वाणीसे उनकी घ्ुति करने छो ।

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