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[१ पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् *
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडु
|
शालिवाहन पिताके सिंहासनपर आसीन हुआ । उसने शक,
चीन आदि देशोकी सेनापर विजय पायी । बाह्वीक, कामरूप,
येम तथा खुर देशमें उत्पन्न हुए दुष्टोको पकड़कर उन्हें
कठोर दण्ड दिया और उनका सारा कोष छीन लिया । उसने
म्लेच्छो तथा आर्योकी अलग-अलग देश-मर्यादा स्थापित
की। सिन्धु- प्रदेशको आर्योका उत्तम स्थान निर्धारित किया
और ग्लेच्छोंके लिये सिन्धुके उस पारक प्रदेश नियत किया।
एक समयकी बात है, वह शकाथीश शालिवाहन
हिमशिखरपर गया। उसने हृण देशके मध्य स्थित पर्वतपर
एक सुन्दर पुरुषकों देखा । उसका शरीर गोरा था और यह शेत
वस्र धारण किये था। उस व्यक्तिको देखकर शकरजने
असन्नतासे पूछा--आप कौन हैं ?' उसने कहा--'मैं ईशपुत्र
हूँ और कुमारीके गर्भसे उत्पन्न हुआ हूँ। मैं म्लेच्छ-धर्मका
प्रचारक और सत्य-अतमें स्थित हूँ।' राजाने पूछा---' आपका
कौन-सा धर्म है?"
ईशपुत्रने कहा--महाराज ! सत्यका विनाश हो जानेपर
मर्यादारहित स्लेच्छ-प्देशमें मैं मसीह बनकर आया और
दस्युओकि मध्य भयंकर ईशामसी नामसे एक कन्या उत्पन्न
हुई। उसको म्लेच्छोंसे प्राप्त कर मैंने मसीहत्व पराप्त किया ।
मैंने म्लेच्छोंमें जिस धर्मकी स्थापना की है, उसे सुनिये--
'सबसे पहले मानस और दैहिकं मलको निकालकर
शरीरको पूर्णतः निर्मल कर लेना चाहिये। फिर इष्ट देवताका
जप करना चाहिये । सत्य वाणी बोलनी चाहिये, न्यायसे चलना
चाहिये और मनको एकाग्र कर सूर्यमण्डलमें स्थित परमात्माकी
पूजा करनी चाहिये, क्योकि ईश्वर और सूर्यमें समानता है।
परमात्मा भी अचल हैं और सूर्य भी अचल हैं। सूर्य अनित्य
भृतकं सारका चारों ओरसे आकर्षण करते हैं। हे भूपाल !
ऐसे कृत्यसे वह मसीहा विलीन हो गयी। पर मेरे हृदयमें नित्य
विशुद्ध कल्याणकारिणी ईश-मूर्ति प्राप्त हुई है। इसलिये मेरा
नाम ईशामसीह प्रतिष्ठित हुआ ।'
यह सुनकर राजा शालिवाहनने उस स्लेच्छ-पूज्यको
प्रणाम किया और उसे दारुण स्लेच्छ-स्थानमें प्रतिष्ठित किया
तथा अपने राज्यमें आकर उस राजाने अश्वमेध यज्ञ किया और
साठ वर्षतक राज्य करके स्वर्गलोक चला गया।
~ त्या -
राजा भोज ओर महामदकी कथा
सूततजीने कहा--ऋषियो ! शालिवाहनके वंशम दस
राजा हुए। उन्होंने पाँच सौ वर्षकक दासन किया और
स्वर्गवासी हुए। तदनन्तर भूमण्डलपर धर्म-मर्यादा लुप्त होने
लूगी। शालिवाहनके वंशमें अन्तिम दसवें राजा भोजराज
हुए। उन्होंने देशाकी मर्यादा क्षीण होती देख दिग्विजयके लिये
प्रस्थान किया। उनकी सेना दस हजार थी और उनके साथ
कालिदास एवं अन्य विद्वान् ब्राह्मण भी थे। उन्होंने सिन्धु
नदीको पार करके गान्धार, म्लेच्छ और काइमीरके शठ
राजाओंको परास्त किया तथा उनका कोश छीनकर उन्हें
दण्डित किया। उसी प्रसंगमें आचार्य एवं दिष्यमण्डल्के
साथ म्लेच्छ महामद नामक व्यक्ति लपस्थित हुआ। राजा
भोजने मरुस्थले विद्यमान महादेवजीको दर्शन किया ।
महादेवजीको पञ्चगव्यमिश्रित गङ्गाजलसे स्नान कराकर
चन्दन आदिमे भक्तिभावपूर्वक उनका पूजन किया और
उनकी सतुति की।
भोजराजने कहा--है मरुस्थले निवास करनेवाले
तथा म्लेच्छसे गुप्त शुद्ध सच्विदानन्दस्वरूपवाले गिरिजापते !
आप त्रिपुरासुर्के विनाशक तथा नानाविध मायाशक्तिके
प्रवर्तक दै । मैं आपकी शरणमे आया हूँ, आप मुझे अपना
दास समझें। चै आपके नमस्कार करता हूँ। इस स्तुतिको
सुनकर भगवान् शिवने राजासे कहा--
“हे भोजराज ! तुम्हें महाकालेश्वर-तीर्थमें जाना चाहिये ।
यह वाह्लीक नामकी भूमि है, पर अब म्लेच्छोसे दूषित हो गयी
है। इस दारुण प्रदेशमें आर्य-धर्म है ही नहीं। महामायावी
त्रिपुरासुर यहाँ दैत्यराज बलिद्धाय प्रेषित किया गया है। मेरे
द्वारा वरदान प्राप्त कर वह दैत्य-समुदायको बढ़ा रहा है। वह
अयोनिज है। उसका नाम महामद है। रजन् ! तुम्हें इस
अनार्यं देशमें नहीं आना चाहिये। मेरी कृपासे तुम विशुद्ध
हो † भगवान् शिवके इन यचनोंकों सुनकर राजा भोज सेनाके
साथ अपने देशमें वापस चला आया।
राजा भोजने द्विजवर्गके लिये संस्कृत वाणीका प्रचार
किया और शुद्रोकि लिये प्राकृत भाषा चलायी। उन्होंने पचास