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मं० ६ सु? ३७ ४९

हे इद्धदेव !आप अत्यन्त पराक्रमी हैं आप विधिन्न योजनाएँ बनाकर शत्रु का संहार करें । हे इद्धदेव आप

श्रेष्ठ पदार्थों के देने वाले हैं ।हम स्तोता उत्तम स्तो का उच्चारण करते हैं । हे देव !अद्विराओं को अन्न प्रदान करें ॥ ५ ॥

[ सूक्त - ३६ |

[ ऋषि- नर भारद्राज । देवता- इन्द्र छन्द- विष्टप्‌। ]

४७१०, सत्रा मदासस्तव विश्वजन्याः सत्रा रायोऽध ये पार्थिवास: ।

सत्रा बाजानामभवो विधक्ता यदेवेषु धारयथा असूर्यम्‌ ॥९॥

हे इद्धदेव ! सोम पौकर आपका हर्षित होना हम लोगों का हित करने वाला होता है । देवों के मध्य आप

सर्वाधिक बलसमपप्न हैं। आप अत्रदाता हैं। है इद्धदेव ! पृथ्वी आदि में आपके समस्त घन वास्तव में सबके

हित करने वाले हैं ॥९ ॥

४७११.अनु प्र येजे जन ओजो अस्य सत्रा दधिरे अनु वीर्याय ।

स्यूमगृभे दुधयेऽर्वते च क्रतुं वृञ्जन्त्यपि वृत्रहत्ये ॥२ ॥

इन्द्रदेव के बल के कारण यजमान हमेशा इद्धदेव को पहले पूजते हैं । वे इन्द्रदेव शत्रुओं पर आक्रमण करने

वाले, उन्हें पकड़ने वाले और उनको मारने वाले है । शुभकर्मकर्ता इद्रदेव वत्र का वध करने वाले हैं; इसी कारण

याजक इन्द्रदेव की सेवा करते हैं ॥२ ॥

४७१२त॑ सध्रीचीरूतयो वृष्णयानि पौस्यानि नियुतः सश्रुरिन्द्रम्‌।

समुद्र न सिन्धव उक्थशुष्मा उरुव्यचसं गिर आ विशन्ति ॥३ ॥

बल एवं शौर्य-पराक्रमयुक्त संरक्षक मरुद्गण और रथ मे जुतने वाले घोड़े आदि इन्द्रदेव की सेवा करते हैं ।

जैसे समस्त नदियाँ अन्तत. सहज हौ समुद्र में पहुँचती (गिरती) है, वैसे समस्त बलयुक्त स्तुतियाँ इन्द्रदेव तक

पहुँचती हैं ॥३ ॥

४७१३स रायस्खापुप सृजा गृणानः पुरुश्चन्द्रस्य त्वमिन्द्र वस्वः ।

पतिर्बभूथासमो जनानामेको विश्वस्य भुवनस्य राजा ॥४ ॥

हे इन्द्रदेव ! स्तुति से प्रसन्न होकर, आप बहुतों को अन्न सहित घर देने वाले दै । हमें भौ अन्न प्रदान करें ।

आप समस्त श्रेष्ठ प्राणियों के स्वामी हैं, सभी भुवनों के आप अधिपति हैं ॥४ ॥

४७१४ तु श्रि श्रुत्या यो दुवोयुद्यार्न भूमाभि रायो अर्यः ।

असो यथा नः शवसा चकानो युगेयुगे वयसा चेकितानः ॥५ ॥

हे इन्द्रदेव ! आप हमारे श्रेष्ठ प्रशंसनीय स्तोत्रों को सुते । हमारे दरार पूजा कराने के इच्छुक आप सूर्यदेव

के समान शत्रुओं को ज़ोतकर, हमारे लिए पहले के समान ही (हितकारी) रहें ॥५॥

[ सूक्त - ३७ |

[ ऋषि- भरद्वाज़ बा्स्पत्य । देवता- इन्द्र छन्ट- तिष्टप्‌। |

४७१५.अर्वाप्रथं विश्ववारं त उपरर युक्तासो हरयो वहन्तु ।

कीरिश्चिद्धि त्वा हवते स्वर्वानृधीमहि सधमादस्ते अद्य ॥१ ॥

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