२२४ ऋग्वेद संहिता पाग-१
१५७५. युयूषतः सवयसा तदिद्वपु:ः समानमर्थं वितरित्रता मिथ: ।
आदीं भगो न हव्यः समस्मदा वोक्हू्न रश्पीन्त्समयंस्त सारथिः ॥३ ॥
अग्नि को उत्पन्न करने के लिए भलो प्रकार स्थापित एक हौ समय में समान सामर्थ्य से युक्त दो अरणिं
परस्पर धिसौ जाती है । प्रज्वलित होने के बाद यजनीय अग्निदेव हमारे द्वारा प्रदत्त घृतधारा को सभी ओर
से उसी प्रकार ग्रहण करते हैं, जिस प्रकार सारथी अश्वो को लगाम द्वारा नियन्त्रित करते हैं ॥३ ॥
१५७६. यमीं द्रा सवयसा सपर्यतः समाने योना मिथुना समोकसा ।
दिवा न नक्तं पलितो युवाजनि पुरू चरन्नजरो मानुषा युगा ॥४ ॥
दो समान आयु वाले, एक हौ घर मे रहने वाले, समान कार्यों में संलग्न युग्प अग्निदेव की यज्ञीय कर्मों
द्वारा अहर्निश अर्चना करते है । उनके रा पित अग्निदिव बढ़ने पर भी (प्राचीन होते हुए भी) वृद्ध नहीं होते ।
वे अनेकों युगो से संचरित होकर धौ कभी जीर्णं नहीं होते ॥४ ॥
१५७७. तमीं हिन्वन्ति धीतयो दश व्रिशो देवं मर्तास ऊतये हवामहे ।
धनोरधि प्रवत आ स ऋण्वत्यभित्रजद्धिर्वयुना नवाधित ॥५ ॥
दसो अंगुलियों की आपसी भित्रता होने पर भी वे सभौ मिलकर प्रकाश देने वालो अग्नि को प्रकट करती
हैं। हम सभी मनुष्य अपने संरक्षणार्थं अग्निरेव को आवाहित करते हैं । जिस प्रकार धनुष से बाण निकलता है,
उसी प्रकार अग्निदेव प्रज्वलित होकर चारों ओर उपस्थित अपने प्रति स्तुतिगाताओं द्वार निवेदित नूतन प्रार्थनाओं
को धारण करते हैं ॥५ ॥
१५७८. त्वं हाने दिव्यस्य राजसि त्वं पार्थिवस्य पशुपा इव त्मना ।
एनी त एते बृहती अभिश्रिया हिरण्ययी वक्वरी बर्हिराशाते ॥६॥
हे अग्निदेव ! आप गौ आदि पशुपालकों के समान अपनो सापर्ध्व से दिव्यलोक और पृथ्वौलोक के अधिपति
है । अतएव व्यापक, ऐश्वर्य सम्पन्न, स्वर्णमय, मंगल शब्दमय, शुप्रवर्णयुक्त ये दोनों, दिव्य लोक और भूलोक,
आपके इस प्रख्यात यज्ञ में उपस्थित होते हैं ॥६ ॥
१५७९. अग्ने जुषस्व प्रति हर्य तद्वचो मन्दर स्वधाव ऋतजात सुक्रतो ।
यो विश्वतः प्रत्यङ्डसि दर्शतो रण्वः सन्ृषटौ पितुमाँ इव क्षयः ॥७ ॥
प्रशंसा योग्य, अन्नों से समृद्ध यज्ञहेतु उत्पन्न श्रेष्ठ कर्मशील हे अग्निदेव ! जो आप समस्त जड़ और चेतनादि
संसार के लिए अनुकूल दर्शन योग्य, पिता के समान पालक नेत्रों को शक्ति देने वाले तथा सबके आश्रय स्थान
हैं। अतएव आप प्रसन्न होकर इन स्तोत्रवाणियो का बार-बार श्रवण करें ॥७ ॥
[ सूक्त - १४५ ]
[ ऋषि- दीर्घतपा ओचथ्य । देवता- अग्नि छन्द- जगती, ५ त़िट्टुप् ।]
१५८०. तं पृच्छता स जगामा स वेद स चिकित्वाँ ईयते सा न्वीयते ।
तस्मिन्सन्ति प्रशिषस्तस्मिन्निष्टयः स वाजस्य शवसः शुष्पिणस्पतिः ॥१ ॥
हे मनुष्यो {आप सभी उन अग्निदेव से हो प्रश्न करें, क्योंकि वे हौ सर्वत्र गमनशील, सर्वजञाता, ज्ञानवान्
निश्चय ही सर्वत्र व्यापक है । उन्हीं में प्रशासन की सामर्च्य तथा सभी अभीष्ट पदार्थ विद्यपान है । वे अग्निदेव ही
अन्न, बल तथा शक्ति साधनों के स्वापी हैं ॥१ ॥