ॐ श्रीपरमात्मने नमः
मध्यमपर्व
(तृतीय भाग )
उद्यान-प्रतिष्ठा-विधि
सूतजी कहते हैं--ब्राह्मणो ! उद्यान आदिक प्रतिष्ठामें
जो कुछ विशेष विधि है, अब उसे बता रहा हूँ, आपत्पेग
सुनें। सर्वप्रथम एक चौकोर मण्डलकी रचना कर उसपर
अष्टदल कमल बनाये। मण्ड्क़्के ईशानकोणमें कलदाकी
स्थापनाकर उसपर भगवान् गणनाथ और वरुणदेवकी पूजा
करें। तेदनन्तर मध्यम कलाम सूर्यादि प्रहोका पूजन करे।
फिर पश्चिमादि द्वारदेझ्ञॉमें ब्रह्मा और अनन्त तथा मध्ये
वरुणकी पूजा करे । जलपूरित कलद्ामें भगवान् वरुणका
आवाहन करते हुए कहे--“वरुणदेव ! मैं आपका आवाहन
करता हूँ। विभो! आप हमें स्वर्ग प्रदान करें।' तदनन्तर
पूर्वभागमें मन्दरगिरिकी स्थापना कर तोरणपर विष्वक्सेनकी
पूजा करे और कर्णिका-देदामें भगवान् वासुदेवका पूजन करे ।
भगवान् वासुदेव शुद्ध स्फटिकके सदृश हैं। वे अपने चारों
हाथोंमें जद्ढ, चक्र, गदा और पद्म घारण किये हुए हैं। उनके
यक्ष:स्थलपर श्रीवत्स-चिद्ठ और कौस्तुभमणि सुशोभित है
तथा मस्तक सुन्दर मुकुटसे अलंकृत है। उनके दक्षिण भागमें
भगवती कमल, कम भागमे पुष्टिदेवी विराजमान हैं। सुर,
असुर, सिद्ध, किन्नर, यक्ष आदि उनकी स्तुति करते है ।
*विष्णों रराट० (यजु* «५।२१५) इस मचसे भगवान्
विष्णुकी पूजा करें। उनके साथमे संकर्षणादि-व्यूह और
विमत्म आदि चाक्तियोंकी धूप, दौप आदि उपचारोंसे अर्चना
कर प्रार्था करें। उनके सामने घीका दीप जल्यये और
गुण्युलका धूप प्रदान कर घृतमिश्रित खीरका नैवेद्य लगाये।
कर्णिकाके दक्षिणको ओर कमलके ऊपर स्थित सोपका ध्यान
करे । उनका वर्ण शुक् है, वे झान्त-स्वरूप हैं, वे अपने हाथोंमें
वरद और अभय-पुद्रा धारण किये हैं एवं केयूरादि धारण
करनेके कारण अत्यन्त दोभित हैं। "इषं देवा" (यजुः
९।४०) इस मन््रसे इनकी पूजा कर इन्हें घृतमिश्रित भातका
येच अर्पण करे। पूर्व आदि दिक्लाओमें इन्द्र, जयन्त,
आकादा, वरुण, अग्रि, ईशान, तत्पुरुष तथा कायुकी पूजा
करें। कर्णिकाके वाम भागमें शुक्ल वर्णवाले महादेवका
ज्यम्बकं" (यजु० ३ । ६०) इस मन््रसे पूजन कर नैवेध् आदि
प्रदान करे । भगवान् वासुदेवके लिये हविष्यसे आठ, सोमके
लिये अड्डाईस तथा शिक्के लिये दो खोरकी आहुतियाँ दे ।
गणेशजीको घौकी एक आहुति दे। ब्रह्मा एवं वरुणके लिये
एक-एक आहुति और ग्रह एवं दिक्पालोंके लिये विहित
समिधाओं तथा घीसे एक-एक आहुतियाँ दे।
अत्रक सात जिह्ाऑ--कराली, धूमली, शे,
लोहिता, स्वर्णप्रभा, अतिरक्ता और पद्मगगाको भी मन्तरोंसे घृत
एवं मधुमिश्रित हविष्यद्वारा एक-एक आहुति प्रदान करे । इसी
प्रकार अग्नि, सोम, इन्द्र, पृथ्वी और अन्तरिक्षके निमित्त मधु
और क्षीर-युक्त यवोंसे एक-एक आहुतियाँ प्रदान करे ॥ फिर
गन्ध-पुष्पादिसे उनकी पृथक्-पृथक् पूजा करके रुद्रसूक्त तथा
सौरसृक्तका जप करे । अनन्तर यूपकों भल्ीभाँति स्नान कराकर
और उसका पार्जनकर उसे उद्यानके मध्य भागमें गाड़ दे।
यूपके प्रात्त-भागमें सोम तथा यनस्पतिके ल्त्यि ध्वजाओँकों
लगा दे। 'कोड्दास्कस्पा”' (यजुः ७ ।४८) इस मन्त्रसे
वृक्षोंका कर्णवेध संस्कार करे । एक तीखी सुईसे वृक्षके दक्षिण
तथा वाम भागके दो पत्तोंका छेदन करे। नवप्रहोंकी तृप्तिके
लिये लड्डू आदिका भोग लगाये तथा बालक और कुमारियोंका
मालपूआ खिल्मये। रेजित सूत्रोंसे उच्चानके चृक्षोंकों आवेधित
करें। उन वृक्षोंक्रों जलादिका प्रादान कराये और यह
प्रार्था-मन्र पढ़े--
वृक्षाप्रात् पतितस्थापि आरोहात् पतितस्य च ।
मरणो वास्ति भड्टे या कर्ता पापर्न लिप्यते॥
(मध्यमर्र्ण ३।६।३१)
तात्पर्य यह कि विधिपूर्वक उद्यान आदिमे लगाये गये
वुक्षके ऊपरसे यदि कोई गिर जाय, गिरकर मर जाय या अस्थि
टूट जाय तो डस पापका भागी वृक्ष लगानेवात्प नहीं होता ।
उद्यानके निमित्त पूजा आदि कर्म करनेवाले आचार्यको
स्वर्ण, धान, गाय तथा दक्षिणा प्रदानं कर उनकी प्रदक्षिणा
कमे । ऋत्विककों भी स्वर्ण, रजत आदि दक्षिणामें दै । ब्रह्माको