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१.

एकत्व ही सबके द्वारा जाननेयोग्य है । गीताशास्नरमें

इसीका प्रतिपादन हुआ है ।

अमिततेजस्वौ भगवान्‌ विष्णुके ये वचन सुनकर

लक्ष्मीदेबीने राङ्क उपस्थित करते हुए कहा--

"भगवन्‌ ! यदि आपका स्वरूप स्वयं परमानन्दमय और

मन-वाणीकी पहुँचके बाहर है तो गीता कैसे उसका बोघ

कराती है ? मेरे इस सन्देहका आप निवारण कीजिये ।

श्रीभगवान्‌ ओले--सुन्दरि ! सुनो, मैं गीतामें

अपनी स्थितिका वर्णन करता हूँ। क्रमशः पाँच

अध्यायोंको तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायोंको दस

भुजाएँ, समझो तथा एक अध्यायको उदर और दो

अध्यायोंको दोनों चरणकमल जानो । इस प्रकार यह

अठारह अध्यायोंकी वाङ्घयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी

चाहिये ।* यह ज्ञानमात्रसे ही महान्‌ पातकॉंका नादा

करनेवाली है। जो उत्तम बुद्धिवाल्त पुरुष गौताके एक

या आधे अध्यायका अथचा एक, आधे या चौथाई

इल्म्रेकका भी प्रतिदिन अभ्यास करता है, वह सुझर्माके

समान मुक्त हो जाता है।

श्रीलक्ष्मीजीने पूछा--देव ! सुशर्मा कौन

था ? किस जातिका था ? और किस कारणसे उसकी

मुक्ति हुई ?

श्रीभगवान्‌ बोछे--प्रिये ! सुझर्मा बड़ी खोरी

बुद्धिका मनुष्य धा । पापियोका तो वह झिरोमणि ही था।

उसका जन्म वैदिक ज्ञानसे शृन्य एवं क्रूरतापूर्ण कर्म

करनेवाले ब्राह्मणोंके कुछमें हुआ धा । वह न ध्यान

करता था न जप; न होम करता था न अतिथियोंका

सत्कार । वह हरूम्पट होनेके कारण सदा विषयोंके

सेवनमें ही आसक्त रहता था। हल जोतता ओर पते

चकर जीविका चलाता था । उसे मदिरा पीनेका व्यसन

था तथा वह मांस भी खाया करता था । इस प्रकार उसने

अपने जीवनका दीर्घकाल व्यतीत कर दिया । एक दिन

मूढ़बुद्धि सुकर्मा पत्ते छानेके लिये किसी ऋषिकी

* अर्चयस्व इृषीकेश यदीच्छसि परं पदम्‌ «

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[ संक्षिप्त पद्मयपुराण

23:73

वाटिकामे घूम रहा था । इसी बीचमें कालरूपधारी काले

साँपने उसे डैंस लिया। सुदार्माकी मृत्यु हो गयी।

तदनन्तर बह अनेक नरकॉमें जा वहाँकी यातना

भोगकर मर्व्यलोकमें लेट आया और यहाँ बोझ

ढोनेवाछा बैल हुआ। उस समय किसी पहुने अपने

जीवनको आरामसे व्यतीत करनेके लिये उसे खरीद

लिया। बैलने अपनी पीठपर पङ्क भार कोते हुए बड़े

कष्टसे सात-आठ वर्ष बिताये। एक दिन पन्रुने किसी

ऊँचे स्थानपर बहुत देरतक बड़ी तेजीके साथ उस

बैलको घुमाया । इससे वह थककर बड़े वेगसे पृथ्वीपर

गिरा और मूर्छित हो गया । उस समय वहाँ कुतूहल्वरा

आकृष्ट हो यहुत-से लोग एकत्रित हो गये। उस

जनसमुदायमेंसे किसी पुण्यात्मा व्यक्तिने उस बैलका

कल्याण करनेके लिये उसे अपना पुण्य दान किया।

तत्पश्चात्‌ कुछ दूसरे ल्त्रेगोने भी अपने-अपने पुण्यक

याद करके उन्हें उसके लिये दान किया। उस भीड़में

एक वेया भी स्परड़ी थी। उसे अपने पुण्यका पता नहीं

था, तो भी उसने लोगो देखा-देखी उस बैलके लिये

कुछ त्याग किया ।

तदनन्तर यमराजके दूत उस मरे हुए प्राणीको पहले

यमपुरी ले गये । वहाँ यह विचारकर कि यह वेदयाके

दिये हुए पुण्यसे पुण्यवान्‌ हो गया है, उसे छोड़ दिया

गया । फिर वह भूलोकमें आकर उत्तम कुल और

शीलबाले ब्राह्मणोकि घरमें उत्पन्न हुआ। उस समय भी

उसे अपने पूर्वजन्मकी वार्तोका स्मरण खना रहा । बहुत

दिनेकि बाद अपने अज्ञानको दूर करनेवाले कल्याण-

तत्त्वका जिज्ञासु होकर वह उस वेद्याके पास गया और

उसके दानकी बात तत्ते हुए उसने पूछा--'तुमने

कौन-सा पुण्य दान किया था ? ' वेक्याने उत्तर दिया--

"वह पिजरेमें बैठा हुआ तोता प्रतिदिन कुछ पढ़ता है ।

उससे मेश अन्तःकरण पवित्र हो गया है । उसीका पुण्य

मैने तुम्हारे लिये दान किया था ।' इसके बाद उन दोनेनि

+ णु सन्रोणि यक्ष्यासि गतासु स्थितिपात्मनः । कक्तराणि पञ्च नीहि पञ्चाध्यायाननुक्रमात्‌ ॥

दशाध्यायान्भुजौद्चैकमुदरः दौ पदाम्बुजे । एवमषटादराध्यायी याङ्गयौ मूरिधरी ॥ (१७१ ॥ २७-२८)

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