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डुकड़े किये जाते हैं। कितने ही कोड़ोंसे पीटे

जाते हैं और कितनोंको तपाये हुए लोहेके गोले

खिलाये जाते हैं। बहुत-से यमदूत उनको धूलि,

विष्ठा, रक और कफ आदि भोजन कराते तथा

तपायी हई मदिरा पिलाते हैं। बहुत-से जीवॉको

वे आरेसे चीर डालते हैं। कुछ लोगोंको कोल्हूमें

पेरते हैं। कितनोंको कौवे आदि नोच-नोचकर

खाते हैं। किन्हीं-किन्हीके ऊपर गरम तेल छिड़का

जाता है तथा कितने ही जीवोंके मस्तकके अनेकों

डुकड़े किये जाते हैं। उस समय पापी जीव “अरे

बाप रे” कहकर चिल्लाते हैं और हाहाकार मचाते

हुए अपने पापकर्मोंकी निन्दा करते हैं। इस प्रकार

बड़े-बड़े पातकोंके फलस्वरूप भयंकर एवं निन्दित

नरकॉंका कष्ट भोगकर कर्म क्षीण होनेके

पश्चात्‌ वे महापापी जीव पुनः इस मर्त्यलोकमें

जन्म लेते हैं॥१९--२९ \॥

ब्रह्महत्यारा पुरुष मृग, कुत्ते, सुअर और

ऊँटोंकी योनिमें जाता है। मदिरा पीनेवाला गदहे,

चाण्डाल तथा म्लेच्छे जन्म पाता है। सोना

चुरानेवाले कीड़े-मकोड़े और पतिंगे होते हैं तथा

गुरुपत्तीसे गमन करनेवाला मनुष्य तृण एवं

लताओमें जन्म ग्रहण करता है। ब्रह्महत्यारा

राजयक्ष्माका रोगी होता है, शराबीके दाँत काले

हो जाते हैं, सोना चुरानेवालेका नख खराब होता

है तथा गुरुपत्नीगामीके चमड़े दूषित होते हैं

(अर्थात्‌ वह कोढ़ी हो जाता है ) । जो जिस पापसे

सम्पर्क रखता है, वह उसीका कोई चिह्न लेकर

जन्म ग्रहण करता है। अन्न चुरानेवाला मायावी

होता है। वाणी (कविता आदि)-की चोरी करनेवाला

गगा होता है। धान्यका अपहरण करनेवाला जब जन्म

ग्रहण करता है, तब उसका कोई अङ्ग अधिक होता

है, चुगुलखोरकी नासिकासे बदबू आती है, तेल

चुरानेवाला पुरुष तेल पीनेवाला कीड़ा होता है तथा

जो इधरकी बातें उधर लगाया करता है, उसके

मुँहसे दुर्गन्ध आती है। दूसरोंकी स्त्री तथा ब्राह्मणके

धनका अपहरण करनेवाला पुरुष निर्जन वनमें

ब्रह्मराक्षस होता है। रत्न चुरानेवाला नीच जातिमें

जन्म लेता है। उत्तम गन्धकी चोरी करनेवाला

छछ्ूंदर होता है। शाक-पात चुरानेवाला मुर्गा तथा

अनाजकी चोरी करनेवाला चूहा होता है। पशुका

अपहरण करनेवाला बकरा, दूध चुरानेवाला कौवा,

सवारौकी चोरी करनेवाला ऊँट तथा फल चुराकर

खानेवाला बन्दर होता है। शहदकी चोरी करनेवाला

डस, फल चुरानेवाला गृध्र तथा घरका सामान हड़प

लेनैवाला गृहकाक होता है । वस्त्र हड्पनेवाला

कोढ़ी, चोरी-चोरी रसका स्वाद लेनेवाला कुत्ता और

नमक चुरानेवाला झींगुर होता है॥ ३०--३७ ‡ ॥

यह 'आधिदेबिक ताप" का वर्णन किया गया

है। शस्त्र आदिसे कष्टकी प्राप्ति होना आधिभौतिक

ताप' है तथा ग्रह, अग्नि और देवता आदिसे जो

कष्ट होता है, वह 'आधिदैविक ताप" बतलाया

गया है। इस प्रकार यह संसार तीन प्रकारके

दुःखोंसे भरा हुआ है। मनुष्यको चाहिये कि

ज्ञानयोगसे, कठोर ब्रतोंसे, दान आदि पुण्योंसे

तथा विष्णुकी पूजा आदिसे इस दुःखमय संसारका

निवारण करे ॥ ३८--४०॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणे “ नरकादि- निरूपण ' नामक

तीन सौ इकहतरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ २७१ ॥

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